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"सरस्वती पुत्र / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | गाते जाते थे राम-नाम। | ||
+ | भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक, | ||
+ | निर्बोध, अयाने, नाटे, | ||
+ | पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले। | ||
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00:36, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
खुले गले से
मुखर स्वरों में
अति-प्रगल्भ
गाते जाते थे राम-नाम।
भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक,
निर्बोध, अयाने, नाटे,
पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।
बाहर वह
खोया-पाया, मैला-उजला
दिन-दिन होता जाता वयस्क,
दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
सुस्पष्ट देखता जाता था;
पहचान रहा था रूप,
पा रहा वाणी और बूझता शब्द,
पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था:
दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी।