{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
}}
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो 
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाय जाए? 
 
शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले, 
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाय जाए! 
 
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे, 
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो - - हो— 
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाय जाए! 
 
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो 
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाय जाए?