भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अन्त के बाद-1 / अशोक वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=कहीं नहीं वहीं / अशोक वाजपेयी
 
|संग्रह=कहीं नहीं वहीं / अशोक वाजपेयी
 
}}  
 
}}  
 +
{{KKCatkavita}}
 +
<poem>
 +
अन्त के बाद
 +
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।
  
अन्त के बाद<br>
+
फिर झगड़ेंगे,
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।<br><br>
+
फिर खोजेंगे,
 +
फिर सीमा लाँघेंगे
  
फिर झगड़ेंगे,<br>
+
क्षिति जल पावक
फिर खोजेंगे,<br>
+
गगन समीर से
फिर सीमा लाँघेंगे<br><br>
+
फिर कहेंगे-
 +
चलो
 +
हमको रूप दो,
 +
आकर दो !
  
क्षिति जल पावक<br>
+
वही जो पहले था
गगन समीर से<br>
+
वही-
फिर कहेंगे-<br>
+
जिसके बारे में
चलो<br>
+
अन्त को भ्रम है
हमको रूप दो,<br>
+
कि उसने सदा के लिए मिटा दिया।
आकर दो !<br><br>
+
  
वही जो पहले था<br>
+
अन्त के बाद
वही-<br>
+
हम समाप्त नहीं होंगे-
जिसके बारे में<br>
+
यहीं जीवन के आसपास
अन्त को भ्रम है<br>
+
मँडरायेंगे-
कि उसने सदा के लिए मिटा दिया।<br><br>
+
यहीं खिलेंगे गन्ध बनकर,
 +
बहेंगे हवा बनकर,
 +
छायेंगे स्मृति बनकर।
  
अन्त के बाद<br>
+
अन्तत:  
हम समाप्त नहीं होंगे-<br>
+
हम अन्त को बरकाकर
यहीं जीवन के आसपास<br>
+
फिर यहीं आयेंगे-
मँडरायेंगे-<br>
+
अन्त के बाद
यहीं खिलेंगे गन्ध बनकर,<br>
+
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।
बहेंगे हवा बनकर,<br>
+
</poem>
छायेंगे स्मृति बनकर।<br><br>
+
 
+
अन्तत: <br>
+
हम अन्त को बरकाकर<br>
+
फिर यहीं आयेंगे-<br>
+
अन्त के बाद<br>
+
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।<br>
+

18:33, 8 नवम्बर 2009 का अवतरण

साँचा:KKCatkavita

अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।

फिर झगड़ेंगे,
फिर खोजेंगे,
फिर सीमा लाँघेंगे

क्षिति जल पावक
गगन समीर से
फिर कहेंगे-
चलो
हमको रूप दो,
आकर दो !

वही जो पहले था
वही-
जिसके बारे में
अन्त को भ्रम है
कि उसने सदा के लिए मिटा दिया।

अन्त के बाद
हम समाप्त नहीं होंगे-
यहीं जीवन के आसपास
मँडरायेंगे-
यहीं खिलेंगे गन्ध बनकर,
बहेंगे हवा बनकर,
छायेंगे स्मृति बनकर।

अन्तत:
हम अन्त को बरकाकर
फिर यहीं आयेंगे-
अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।