"सारा जग बंजारा होता / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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− | + | निरवंशी रहता उजियाला | |
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+ | और ज़िन्दगी लगती जैसे- | ||
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+ | करुणा ने जाकर नफ़रत का आँगन गर न बुहारा होता। | ||
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− | + | अभी सुबह का, अभी शाम का | |
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− | + | और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती | |
− | + | ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता। | |
− | प्यार अगर... | + | प्यार अगर... |
− | + | जीवन क्या है एक बात जो | |
− | + | इतनी सिर्फ समझ में आए- | |
− | + | कहे इसे वह भी पछताए | |
− | + | सुने इसे वह भी पछताए | |
− | + | मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती | |
− | + | अगर तर्क को छोड़ भावना के सँग किया गुज़ारा होता। | |
− | प्यार अगर... | + | प्यार अगर... |
− | + | मेघदूत रचती न ज़िन्दगी | |
− | + | वनवासिन होती हर सीता | |
− | + | सुन्दरता कंकड़ी आँख की | |
− | + | और व्यर्थ लगती सब गीता | |
− | + | पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर | |
− | अगर | + | अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता। |
− | प्यार अगर... | + | प्यार अगर... |
− | + | जाने कैसा अजब शहर यह | |
− | + | कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना | |
− | + | भीतर से लगता पहचाना | |
− | + | बाहर से दिखता अनजाना | |
− | + | जब भी यहाँ ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में | |
− | + | कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता। | |
− | प्यार अगर... | + | प्यार अगर... |
− | + | हर घर-आँगन रंग मंच है | |
− | + | औ’ हर एक साँस कठपुतली | |
− | + | प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर | |
− | + | नाचे बादल, नाचे बिजली, | |
− | + | तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा | |
− | + | प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता। | |
− | + | प्यार अगर... | |
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− | हर घर-आँगन रंग मंच है | + | |
− | औ’ हर एक साँस कठपुतली | + | |
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− | तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा | + | |
− | प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता। | + | |
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17:41, 29 जनवरी 2013 के समय का अवतरण
प्यार अगर थामता न पथ में उँगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वैश्या बन जाती, हर आँसू आवारा होता।
निरवंशी रहता उजियाला
गोद न भरती किसी किरन की,
और ज़िन्दगी लगती जैसे-
डोली कोई बिना दुल्हन की,
दुख से सब बस्ती कराहती, लपटों में हर फूल झुलसता
करुणा ने जाकर नफ़रत का आँगन गर न बुहारा होता।
प्यार अगर...
मन तो मौसम-सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का, अभी शाम का
अभी रुदन का, अभी हँसी का
और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती
ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता।
प्यार अगर...
जीवन क्या है एक बात जो
इतनी सिर्फ समझ में आए-
कहे इसे वह भी पछताए
सुने इसे वह भी पछताए
मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती
अगर तर्क को छोड़ भावना के सँग किया गुज़ारा होता।
प्यार अगर...
मेघदूत रचती न ज़िन्दगी
वनवासिन होती हर सीता
सुन्दरता कंकड़ी आँख की
और व्यर्थ लगती सब गीता
पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर
अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता।
प्यार अगर...
जाने कैसा अजब शहर यह
कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना
भीतर से लगता पहचाना
बाहर से दिखता अनजाना
जब भी यहाँ ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में
कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता।
प्यार अगर...
हर घर-आँगन रंग मंच है
औ’ हर एक साँस कठपुतली
प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर
नाचे बादल, नाचे बिजली,
तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा
प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता।
प्यार अगर...