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पढ़ा गया हमको
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जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
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‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
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देखा गया हमको
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देखी जाती है कलाई घड़ी
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जैसे पढ़ा जाता है काग़ज<br>
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यों ही उड़ते मन से  
बच्चों की फटी कॉपियों का<br>
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जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!<br>
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सस्ते कैसेटों पर
देखा गया हमको<br>
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ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे<br>
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सुना गया हमको<br>
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भोगा गया हमको  
यों ही उड़ते मन से<br>
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बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने<br>
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एक दिन हमने कहा–
सस्ते कैसेटों पर<br>
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हम भी इंसान हैं  
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जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
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नौकरी का पहला विज्ञापन। 
  
भोगा गया हमको<br>
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देखो तो ऐसे
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह<br>
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जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
एक दिन हमने कहा–<br>
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बहुत दूर जलती हुई आग। 
हम भी इंसान हैं<br>
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हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर<br>
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जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद<br>
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नौकरी का पहला विज्ञापन।<br><br>
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देखो तो ऐसे<br>
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सुनो, हमें अनहद की तरह
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है<br>
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और समझो जैसे समझी जाती है  
बहुत दूर जलती हुई आग।<br><br>
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नई-नई सीखी हुई भाषा। 
  
सुनो, हमें अनहद की तरह<br>
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इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
और समझो जैसे समझी जाती है<br>
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एक अदृश्य टहनी से
नई-नई सीखी हुई भाषा।<br><br>
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टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
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चींखती हुई चीं-चीं
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‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
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किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
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अगरधत्त जंगल लताएं!
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खाती-पीती, सुख से ऊबी
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और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
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शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
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फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
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(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
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बाक़ी कहानी बस कनखी है। 
  
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई<br>
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हे परमपिताओं,  
एक अदृश्य टहनी से<br>
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परमपुरुषों–  
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें<br>
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बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
चींखती हुई चीं-चीं<br>
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किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं<br>
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अगरधत्त जंगल लताएं!<br>
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खाती-पीती, सुख से ऊबी<br>
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और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही<br>
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शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।<br>
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फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’<br>
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(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)<br>
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बाक़ी कहानी बस कनखी है।<br><br>
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हे परमपिताओं,<br>
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परमपुरुषों–<br>
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बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!<br><br>
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20:35, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण

पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!