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दिल्ली की तस्वीर</div>
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प्रिय गान नहीं गा सका तो</div>
  
 
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रचनाकार: [[रमेश रंजक]]
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रचनाकार: [[त्रिलोचन]]
 
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<div style="border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; line-height: 0; margin: 0 auto; min-height: 590px; padding: 20px 20px 20px 20px; white-space: pre;"><div style="float:left; padding:0 25px 0 0">[[चित्र:Kk-poem-border-1.png|link=]]</div>
 
<div style="border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; line-height: 0; margin: 0 auto; min-height: 590px; padding: 20px 20px 20px 20px; white-space: pre;"><div style="float:left; padding:0 25px 0 0">[[चित्र:Kk-poem-border-1.png|link=]]</div>
मुँह देखा आचरण यहाँ का
+
यदि मैं तुम्हारे प्रिय गान नहीं गा सका तो
बोझिल वातावरण यहाँ का
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मुझे तुम एक दिन छोड़ चले जाओगे
झूठे हैं अख़बार यहाँ के
+
अन्धा है जागरण यहाँ का
+
घने धुँधलके में डूबी हैं सीमाएँ परिवेश की
+
यह महान नगरी है मेरे देश की
+
  
है तो राजनीति की पुस्तक
+
एक बात जानता हूँ मैं कि तुम आदमी हो
लेकिन कूटनीति में जड़ है
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जैसे हूँ मैं जो कुछ हूँ तुम वैसे वही हो
हर अध्याय लिखा है आधा
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अन्तर है तो भी बड़ी एकता है
आधे में आधी गड़बड़ है
+
मन यह वह दोनों देखता है
चमकीला आवरण यहाँ का
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भूख प्यास से जो कभी कही कष्ट पाओगे
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तो अपने से आदमी को ढूंढ़ सुना आओगे
  
उल्टा है व्याकरण यहाँ का
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प्यार का प्रवाह जब किसी दिन आता है
शब्द-शब्द से फूट रही है गन्ध विषैले द्वेष की
+
आदमी समूह में अकेला अकुलाता है
यह महान नगरी है मेरे देश की
+
किसी को रहस्य सौंप देता है
 +
उसका रहस्य आप लेता है
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ऎसे क्षण प्यार की ही चर्चा करोगे और
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अर्चा करोगे और सुनोगे सुनाओगे
  
धूप बड़ी बेशरम यहाँ की
+
विघ्न से विरोध से कदापि नहीं भागोगे
चाँदी की प्यासी हैं रातें
+
विजय के लिए सुख-सेज तुम त्यागोगे
जीती है अधमरी रोशनी
+
क्योंकि नाड़ियों में वही रक्त है
सुन-सुन कर अधनंगी बातें
+
जो सदैव जीवनानुरक्त है
सुबहें हैं चालाक यहाँ की
+
तुमको जिजीविषा उठाएगी, चलाएगी,
 +
बढ़ाएगी उसी का गुन गाओगे, गवाओगे
  
शामें हैं नापाक यहाँ की
 
दोपहरी मेज़ों पर फैलाती बातें उपदेश की
 
यह महान नगरी है मेरे देश की
 
  
उजली है पोशाक बदन पर
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रचनाकाल : जनवरी, 1957, ’कवि’ में प्रकाशित
रोज़ी है साँवली यहाँ की
+
सत्य अहिंसा के पँखों पर
+
उड़ती है धाँधली यहाँ की
+
 
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नागिन-सी चलती ख़ुदगर्ज़ी
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चादर एक सैकड़ों दर्ज़ी
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बिकती है टोपियाँ हज़ारों अवसरवादी वेश की
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यह महान नगरी है मेरे देश की
+
 
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छू कर चरण भाग्य बनते हैं
+
प्रतिभा लँगड़ा कर चलती है
+
हमदर्दी कुर्सी के आगे
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मगरमच्छ आँखें मलती है
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आदम, आदमख़ोर यहाँ के
+
रखवाले हैं चोर यहाँ के
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जिन्हें सताती है चिन्ता कोठी के श्रीगणेश की
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यह महान नगरी है मेरे देश की
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जिसने आधी उमर काट दी
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इधर-उधर कैंचियाँ चलाते
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गोल इमारत की धाई छू
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उसके पाप, पुण्य हो जाते
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गढ़ते हैं कानून निराले
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ये लम्बे नाख़ूनों वाले
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देसी होठों से करते हैं बातें सदा विदेश की
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यह महान नगरी है मेरे देश की
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23:31, 20 अगस्त 2014 का अवतरण

प्रिय गान नहीं गा सका तो

रचनाकार: त्रिलोचन

Kk-poem-border-1.png

यदि मैं तुम्हारे प्रिय गान नहीं गा सका तो मुझे तुम एक दिन छोड़ चले जाओगे

एक बात जानता हूँ मैं कि तुम आदमी हो जैसे हूँ मैं जो कुछ हूँ तुम वैसे वही हो अन्तर है तो भी बड़ी एकता है मन यह वह दोनों देखता है भूख प्यास से जो कभी कही कष्ट पाओगे तो अपने से आदमी को ढूंढ़ सुना आओगे

प्यार का प्रवाह जब किसी दिन आता है आदमी समूह में अकेला अकुलाता है किसी को रहस्य सौंप देता है उसका रहस्य आप लेता है ऎसे क्षण प्यार की ही चर्चा करोगे और अर्चा करोगे और सुनोगे सुनाओगे

विघ्न से विरोध से कदापि नहीं भागोगे विजय के लिए सुख-सेज तुम त्यागोगे क्योंकि नाड़ियों में वही रक्त है जो सदैव जीवनानुरक्त है तुमको जिजीविषा उठाएगी, चलाएगी, बढ़ाएगी उसी का गुन गाओगे, गवाओगे


रचनाकाल : जनवरी, 1957, ’कवि’ में प्रकाशित