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चार
विद्रोही, प्रतिगामी साथ-साथ रहते हैं जैसे
एक दारुण दांपत्य में।
साँचों में एक-दूसरे के गढ़े जाते हुए
एक-दूसरे पर अवलंबित।
हम, जो हैं उन की संतान किंतु
होना ही होगा हमें उन से अलग।
प्रत्येक प्रश्न की पुकार अलग
भाषा है... ख़ास उस की अपनी
जासूसी कुत्ते की तरह, वहाँ जाओ तुम,
जहाँ भी सच्चाई ने छोड़े हों चरण-चिन्ह
पाँच
 
खुले मैदान में इमारतों के पास ही
रद्दी अख़बार एक पड़ा है महीनों से, ठुँसा हुआ ख़बरों से
भींजता दिन-रात बारिश में, धूप में, बूढ़ा हो रहा वह
पौधा या पातगोभी बनने की राह में
पृथ्वी से एकजान होने की राह में।
ठीक उसी तरह, जिस तरह कोई याददाश्त
रच-पच जाती है तुम्हारे स्वरूप में
'''(अनुवाद : रमेशचंद्र शाह)'''
</poem>
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