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आखिरी सच यह है कि एक मरते हुए मुर्ग़े के लिए इन सवालों का कोई मतलब नहीं | आखिरी सच यह है कि एक मरते हुए मुर्ग़े के लिए इन सवालों का कोई मतलब नहीं | ||
− | हम एक प्रतीक की तरह उसमें चाहे | + | हम एक प्रतीक की तरह उसमें चाहे गूढ़ार्थ ढूढ़ लें |
यह हकीक़त बदलती नहीं | यह हकीक़त बदलती नहीं | ||
कि मुर्ग़ा बस मुर्ग़ा है, और इंसान को उसके उपयोग की अनंत विधियां मालूम हैं | कि मुर्ग़ा बस मुर्ग़ा है, और इंसान को उसके उपयोग की अनंत विधियां मालूम हैं |
12:46, 2 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण
मुर्ग़े पक्षियों की तरह नहीं लगते
न ठीक से उड़ सकते हैं न गा सकते हैं
और तो और चिड़ियों में दिखने वाला सौंदर्य बोध भी उनमें नज़र नहीं आता
फूलों और बागीचों में सैर करने की जगह
घूरे में भटकते, चोंच मारते मिलते हैं
और लड़ते हुए इंसानों की तरह।
क्या है वह जो उन्हें हमारी निगाह में चिड़िया नहीं होने देता?
क्या इसलिए कि वे असुंदर हैं?
क्या इसलिए कि उनकी आवाज़ कर्कश है
भले ही वे सभ्यता के सूर्योदय के पहले से ही
हमारी सुबहों को पुकारने का काम करते रहे हैं?
देखें तो वे बेहद उपयोगी हैं- सदियों से हमारे उपभोग की सबसे लज़ीज़ वस्तुओं में एक
आज भी मुर्ग़े के ज़िक्र से किसी चिडिया का खयाल नहीं आता
प्लेट पर परोसे एक खुशबू भरे व्यंजन की महक फैलती है
जबकि यह सब बडी आसान क्रूरता से होता है
बड़ी सहजता से हम उन्हें हलाल होता देखते हैं
पहले उनकी जान ली जाती है, फिर उनके पंख नोचे जाते हैं
फिर उनकी खाल उतारी जाती है
और फिर उन्हें तौला और तराशा जाता है
और यह सब देखते हुए हमारी पलक नहीं झपकती
बाद में खाते हुए भी एक पल को याद नहीं आती
वह तड़फती हुई आख़िरी कोशिश
जो कोई मुर्ग़ा किसी कसाई के हाथ से छूटने के लिए कर रहा होता है।
हालांकि चाहे तो तर्क दे सकते हैं
कि मुर्गे उन ढेर सारे पंछियों से कहीं ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत हैं
जिनकी प्रजातियां या तो मिट गईं या मिटने के कगार पर हैं
भले ही वे रोज़ करोडों की तादाद में हलाल किए जाते हों
और बीच-बीच में किसी बीमारी के डर से ज़िंदा जला दिए जाते हों
आख़िर इंसान ही उन्हें पालता है
न उनकी तादाद में कमी है न उनके कारोबार में
वे बचे हुए तो इसलिए कि हम उन्हें खाते हैं
यहां ये मरते या बचते हुए मुर्गे फिर एक दिलचस्प सवाल उठाते हैं,
क्या सिर्फ वही बचे रहेंगे जिन्हें इंसान खाता है या खा सकता है
क्या ये पूरी धरती सिर्फ इंसान के भोग का भूगोल है?
बाक़ी जो हैं बेकार हैं, मार दिए जाने योग्य हैं, या भुला दिए जाने लायक?
आखिरी सच यह है कि एक मरते हुए मुर्ग़े के लिए इन सवालों का कोई मतलब नहीं
हम एक प्रतीक की तरह उसमें चाहे गूढ़ार्थ ढूढ़ लें
यह हकीक़त बदलती नहीं
कि मुर्ग़ा बस मुर्ग़ा है, और इंसान को उसके उपयोग की अनंत विधियां मालूम हैं
दरअसल यह भी एक विडंबना है कि एक मुर्ग़े को लेकर अनायास पैदा हुई यह करुणा
एक कविता की अपनी मांग भर है
जो बस लहर की तरह आई है और गुज़र जाएगी
और कवि जब लिखने की मेज़ छोड़ खाने की मेज़ पर जाएगा
तो अपने लिए एक लज़ीज़ मुर्गा ही मंगाएगा
और
एक अच्छी कविता लिखने की खुशी के साथ मिला कर खाएगा।