"चंपा के फूल / गीत चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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जो तमाम दूरियों से भी ताउम्र निराश नहीं होती) | जो तमाम दूरियों से भी ताउम्र निराश नहीं होती) | ||
− | कहा था, | + | कहा था, काँच हूँ, पार देख लोगे तुम मेरे |
मेरी पीठ पर क़लई लगाकर ख़ुद को भी देखोगे बहुत सच्चा | मेरी पीठ पर क़लई लगाकर ख़ुद को भी देखोगे बहुत सच्चा | ||
जिस दिन टूटूंगा, गहरे चुभूंगा, किरचों को बुहारने को ये उम्र भी कम लगेगी | जिस दिन टूटूंगा, गहरे चुभूंगा, किरचों को बुहारने को ये उम्र भी कम लगेगी | ||
तुमसे प्रेम करना हमेशा अपने भ्रम से खिलवाड़ करना रहा | तुमसे प्रेम करना हमेशा अपने भ्रम से खिलवाड़ करना रहा | ||
− | स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता | + | स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता हूँ |
लेकिन चंपा मेरी उचक से परे खिलती है | लेकिन चंपा मेरी उचक से परे खिलती है | ||
− | मैं उसकी | + | मैं उसकी छाँव में बैठा उसके झरने की प्रतीक्षा करता हूँ |
एक अविश्वसनीय सुगंध | एक अविश्वसनीय सुगंध | ||
उम्मीद की शक्ल में मेरे सपने में आती है | उम्मीद की शक्ल में मेरे सपने में आती है | ||
− | मुझे देखो, मैं एक आदमक़द इंतज़ार | + | मुझे देखो, मैं एक आदमक़द इंतज़ार हूँ |
− | मैं सुबह की उस किरण को सांत्वना देता | + | मैं सुबह की उस किरण को सांत्वना देता हूँ |
जो तमाम हरियाली पर गिरकर भी कोई फूल न खिला सकी | जो तमाम हरियाली पर गिरकर भी कोई फूल न खिला सकी | ||
− | चंपा के फूलों की पंखुडिय़ां सहलाता | + | चंपा के फूलों की पंखुडिय़ां सहलाता हूँ |
− | उनकी सुगंध से ख़ुद को भरता तुम्हारे कमरे के कृष्ण से पूछता | + | उनकी सुगंध से ख़ुद को भरता तुम्हारे कमरे के कृष्ण से पूछता हूँ |
चंपा के फूल पर कभी कोई भंवरा क्यों नहीं बैठता | चंपा के फूल पर कभी कोई भंवरा क्यों नहीं बैठता | ||
दो पहाडिय़ों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते, खाई भी जोड़ती है | दो पहाडिय़ों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते, खाई भी जोड़ती है | ||
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13:54, 6 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण
(दो अजीब और अविश्वसनीय चीज़ों को जोडऩे का काम
करते हैं उम्मीद और स्वप्न
बुनियाद में बैठा भ्रम विश्वास का सहोदर है
उस कु़रबत का आलिंगन
जो तमाम दूरियों से भी ताउम्र निराश नहीं होती)
कहा था, काँच हूँ, पार देख लोगे तुम मेरे
मेरी पीठ पर क़लई लगाकर ख़ुद को भी देखोगे बहुत सच्चा
जिस दिन टूटूंगा, गहरे चुभूंगा, किरचों को बुहारने को ये उम्र भी कम लगेगी
तुमसे प्रेम करना हमेशा अपने भ्रम से खिलवाड़ करना रहा
स्वप्न में हुए एक सुंदर प्रणय को उचक कर छू लेना चाहता हूँ
लेकिन चंपा मेरी उचक से परे खिलती है
मैं उसकी छाँव में बैठा उसके झरने की प्रतीक्षा करता हूँ
एक अविश्वसनीय सुगंध
उम्मीद की शक्ल में मेरे सपने में आती है
मुझे देखो, मैं एक आदमक़द इंतज़ार हूँ
मैं सुबह की उस किरण को सांत्वना देता हूँ
जो तमाम हरियाली पर गिरकर भी कोई फूल न खिला सकी
चंपा के फूलों की पंखुडिय़ां सहलाता हूँ
उनकी सुगंध से ख़ुद को भरता तुम्हारे कमरे के कृष्ण से पूछता हूँ
चंपा के फूल पर कभी कोई भंवरा क्यों नहीं बैठता
दो पहाडिय़ों को सिर्फ़ पुल ही नहीं जोड़ते, खाई भी जोड़ती है