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03:39, 12 जनवरी 2008 का अवतरण
चाबुक खाये
भागा जाता
सागर-तीरे
मुँह लटकाये
मानो धरे लकीर
जमे झागों की--
रिरियाता कुत्ता यह
पूँछ लड़खड़ाती टाँगों के बीच दबाये ।
कटा हुआ
जाने-पहचाने सब कुछ से
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
और अजाने-अनपहचाने सब से
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
उस ठण्डे पारावार से !