भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दृक्-दृश्यौ / इला कुमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=इला कुमार
 
|रचनाकार=इला कुमार
 +
|संग्रह= जिद मछली की / इला कुमार
 
}}
 
}}
  

23:51, 26 फ़रवरी 2008 का अवतरण


तय था

किसी एक दिन

ओसों की टप् टप् सुनते हुए


जाऐंगे हम पहाड़ों के पैरों तले

जहाँ दूर तक बिछी है गहरी हरी घास की चादर


रख देंगे किसी अनचीन्ही सतह पर

कुछ सपने

उद्वेलित मन प्राणों की सेंध से झांकते

अकुलाते ह्रदय की शांति


प्रतीक्षारत हैं वे


ऊँचे कन्धों पर आकाशों की

खुली खुली सी घेरती बाहें दुलारती मंद बयार

छलछलाती झरने की दूधिया धार


मीलों लंबे कालखंडों के पार


यह मन गहरे स्वप्नों के बाद

अकेला बैठा उकेरता है समाधिस्थ योगी सा

विलीन होने लगता है द्वैत और द्वैती का भाव

अखिल महाभाव में

सपने

अनदेखी मान्यताएं


अंत में बच रहते हैं

त्वं तत् और

झुके बादलों के पार का आकाश

जहाँ प्रतिबिम्बित हो उठता है

शून्याभास का नितांत निजी संसार