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|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
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मानसून का पहला पानी पड़ता है
 
लम्बे व्याकुल इन्तज़ार के बाद
 
सुबह से,
 
अति ऊभ-चूभ मन
 
याद वही सब करता है
 
जो याद नहीं अब, फिर भी रह-रह बजता है
 
ज्यों काँसे की गागर पर बज़ती हों बूंदें ।
 
वह गागर, यों तो फूट चुकी है अब कब की,
 
पर रक्खी है फिर भी सहेजकर पेटी में ।
</poem>
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