"उम्र की वो नदी / प्रकाश मनु" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रकाश मनु |अनुवादक= |संग्रह=छूटत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | कहाँ खो गई | |
उम्र की वो नदी | उम्र की वो नदी | ||
जो खुली धूप में | जो खुली धूप में | ||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
और वह निधड़क | और वह निधड़क | ||
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती | पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती | ||
− | फूलों के संग संग | + | फूलों के संग संग हँसती |
अचानक खिलखिला कर | अचानक खिलखिला कर | ||
खुली रेत पर बिछ जाती थी | खुली रेत पर बिछ जाती थी | ||
पंक्ति 29: | पंक्ति 29: | ||
आकाश हो जाता था | आकाश हो जाता था | ||
− | गुनगुनी | + | गुनगुनी बाँहों में |
कचनार कलियों का परस, | कचनार कलियों का परस, | ||
− | + | साँसों में | |
− | चटखते गुलाबों की | + | चटखते गुलाबों की ख़ुशबू |
तिर आती थी... | तिर आती थी... | ||
पंक्ति 42: | पंक्ति 42: | ||
उजले हंसों की तरह | उजले हंसों की तरह | ||
− | अब नहीं हैं वे मुक्त | + | अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएँ |
− | वे | + | वे ज़िद्दी उफान, |
मगर | मगर | ||
अब भी, कभी-कभी | अब भी, कभी-कभी | ||
पंक्ति 50: | पंक्ति 50: | ||
पूछता है सवाल | पूछता है सवाल | ||
− | कि | + | कि कहाँ खो गई |
उम्र की वो नदी | उम्र की वो नदी | ||
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी | जो कुलांचे भरती दौड़ती थी | ||
− | और समय उसकी | + | और समय उसकी गुल्लक में |
− | + | क़ैद हो जाता था! | |
</poem> | </poem> |
14:05, 12 मई 2020 का अवतरण
कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो खुली धूप में
कुलाचें भरती उछलती दौड़ती थी
तो समय
ठिठक जाता था
रोमांचित राहें, पड़ाव
हरे-भरे कछार
मीठे आवेग से भर
छूने को ललकते थे गाल
और वह निधड़क
पेड़ों से झुक-झुक कर बातें करती
फूलों के संग संग हँसती
अचानक खिलखिला कर
खुली रेत पर बिछ जाती थी
उमंगों भरा सीना
उमग कर
आकाश हो जाता था
गुनगुनी बाँहों में
कचनार कलियों का परस,
साँसों में
चटखते गुलाबों की ख़ुशबू
तिर आती थी...
पास
सिर्फ पास रहने की
अतर्कित प्यास लिए
पंख तोलता था मन,
दूर, जादुई उजालों की दिशा में
उजले हंसों की तरह
अब नहीं हैं वे मुक्त हवाएँ
वे ज़िद्दी उफान,
मगर
अब भी, कभी-कभी
पारे की तरह थरथराता एकान्त
अधीर हो
पूछता है सवाल
कि कहाँ खो गई
उम्र की वो नदी
जो कुलांचे भरती दौड़ती थी
और समय उसकी गुल्लक में
क़ैद हो जाता था!