भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"एक बूँद / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध | |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatBaalKavita}} | |
+ | <poem> | ||
+ | ज्यों निकल कर बादलों की गोद से | ||
+ | थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी | ||
+ | सोचने फिर-फिर यही जी में लगी, | ||
+ | आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ? | ||
− | + | देव मेरे भाग्य में क्या है बदा, | |
− | + | मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ? | |
− | + | या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी, | |
− | + | चू पडूँगी या कमल के फूल में ? | |
− | + | बह गयी उस काल एक ऐसी हवा | |
− | + | वह समुन्दर ओर आई अनमनी | |
− | + | एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला | |
− | + | वह उसी में जा पड़ी मोती बनी । | |
− | + | लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते | |
− | + | जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर | |
− | + | किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें | |
− | + | बूँद लौं कुछ और ही देता है कर । | |
− | + | </poem> | |
− | लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते | + | |
− | जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर | + | |
− | किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें | + | |
− | बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।< | + |
19:55, 28 अगस्त 2009 का अवतरण
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।