भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"युद्ध-विराम / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
 
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।   
  
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है। <br> <br>
+
अब भी 
 +
ये रौंदे हुए खेत 
 +
हमारी अवरूद्ध जिजिविषा के 
 +
सहमे हुए साक्षी हैं; 
 +
अब भी 
 +
ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें 
 +
उन के अमानवी लोभ के 
 +
कुण्ठित, अशमित प्रेत: 
 +
अब भी 
 +
हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में 
 +
पहाड़ी खोहों में 
 +
चट्टानों की ओट में 
 +
वनैली ख़ूँख़ार आँखें 
 +
घात में बैठी हैं: 
 +
अब भी 
 +
दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर 
 +
जमे हैं गिद्ध 
 +
प्रतीक्षा के बोझ से 
 +
गरदनें झुकाए हुए। 
 +
नहीं अभी कुछ नहीं बदला है: 
 +
इस अनोखी रंगशाला में 
 +
नाटक का अन्तराल मानों 
 +
समय है सिनेमा का: 
 +
कितनी रील? 
 +
कितनी क़िस्तें? 
 +
कितनी मोहलत?   
  
अब भी <br>
+
कितनी देर  
ये रौंदे हुए खेत <br>
+
जलते गाँवों की चिरायंध के बदले  
हमारी अवरूद्ध जिजिविषा के <br>
+
तम्बाकू के धुएँ का सहारा? 
सहमे हुए साक्षी हैं; <br>
+
कितनी देर 
अब भी <br>
+
चाय और वाह-वाही की
ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें <br>
+
चिकनी सहलाहट में   
उन के अमानवी लोभ के <br>
+
रुकेगा कारवाँ हमारा?  
कुण्ठित, अशमित प्रेत: <br>
+
अब भी <br>
+
हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में <br>
+
पहाड़ी खोहों में <br>
+
चट्टानों की ओट में <br>
+
वनैली ख़ूँख़ार आँखें <br>
+
घात में बैठी हैं: <br>
+
अब भी <br>
+
दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर <br>
+
जमे हैं गिद्ध <br>
+
प्रतीक्षा के बोझ से <br>
+
गरदनें झुकाए हुए। <br>
+
नहीं अभी कुछ नहीं बदला है: <br>
+
इस अनोखी रंगशाला में <br>
+
नाटक का अन्तराल मानों <br>
+
समय है सिनेमा का: <br>
+
कितनी रील? <br>
+
कितनी क़िस्तें? <br>
+
कितनी मोहलत? <br> <br>
+
  
कितनी देर <br>
+
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: 
जलते गाँवों की चिरायंध के बदले <br>
+
हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल 
तम्बाकू के धुएँ का सहारा? <br>
+
केवल परदा हैं— 
कितनी देर <br>
+
विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं: 
चाय और वाह-वाही की <br>
+
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर 
चिकनी सहलाहट में <br>
+
बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैं: 
रुकेगा कारवाँ हमारा? <br> <br>
+
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं, 
 +
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही 
 +
उन के पार है। 
  
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: <br>
+
बन्दूक़ के कुन्दे से 
हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल <br>
+
हल के हत्थे की छुअन 
केवल परदा हैं— <br>
+
हमें अभी भी अधिक चिकनी लगती, 
विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं: <br>
+
संगीन की धार से 
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर <br>
+
हल के फाल की चमक 
बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैं: <br>
+
अब भी अधिक शीतल, 
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं, <br>
+
और हम मान लेते कि उधर भी 
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही <br>
+
मानव मानव था और है,
उन के पार है। <br><br>
+
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं
 +
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत 
 +
लूट की बोटियों से अधिक है— 
 +
पर 
 +
अभी कुछ नहीं बदला है 
 +
क्योंकि उधर का निज़ाम 
 +
अभी उधर के किसान को 
 +
नहीं देता 
 +
आज़ादी 
 +
आत्मनिर्णय 
 +
आराम 
 +
ईमानदारी का अधिकार!   
  
बन्दूक़ के कुन्दे से <br>
+
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: 
हल के हत्थे की छुअन <br>
+
कुछ नहीं रुका है। 
हमें अभी भी अधिक चिकनी लगती, <br>
+
अब भी हमारी धरती पर 
संगीन की धार से <br>
+
बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती हैं,
हल के फाल की चमक <br>
+
अब भी हमारे आकाश पर 
अब भी अधिक शीतल, <br>
+
धुएँ की रेखाएँ अन्धी 
और हम मान लेते कि उधर भी <br>
+
चुनौती लिख जाती हैं:  
मानव मानव था और है, <br>
+
अभी कुछ नहीं चुका है। 
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं, <br>
+
देश के जन-जन का
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत <br>
+
यह स्नेह और विश्वास 
लूट की बोटियों से अधिक है— <br>
+
जो हमें बताता है 
पर <br>
+
कि हम भारत के लाल हैं— 
अभी कुछ नहीं बदला है <br>
+
वही हमें यह भी याद दिलाता है 
क्योंकि उधर का निज़ाम <br>
+
कि हमीं इस पुण्य-भू के 
अभी उधर के किसान को <br>
+
क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं।   
नहीं देता <br>
+
आज़ादी <br>
+
आत्मनिर्णय <br>
+
आराम <br>
+
ईमानदारी का अधिकार! <br> <br>
+
  
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है: <br>
+
हमें बल दो, देशवासियों,
कुछ नहीं रुका है। <br>
+
क्योंकि तुम बल हो:
अब भी हमारी धरती पर <br>
+
तेज दो, जो तेजस् हो,
बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती हैं, <br>
+
ओज दो, जो ओजस् हो,
अब भी हमारे आकाश पर <br>
+
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
धुएँ की रेखाएँ अन्धी <br>
+
हमें ज्योति दो, देशवासियों,
चुनौती लिख जाती हैं: <br>
+
हमें कर्म-कौशल दो:
अभी कुछ नहीं चुका है। <br>
+
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है,
देश के जन-जन का <br>
+
यह स्नेह और विश्वास <br>
+
जो हमें बताता है <br>
+
कि हम भारत के लाल हैं— <br>
+
वही हमें यह भी याद दिलाता है <br>
+
कि हमीं इस पुण्य-भू के <br>
+
क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं। <br> <br>
+
 
+
हमें बल दो, देशवासियों, <br>
+
क्योंकि तुम बल हो: <br>
+
तेज दो, जो तेजस् हो, <br>
+
ओज दो, जो ओजस् हो, <br>
+
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो <br>
+
हमें ज्योति दो, देशवासियों, <br>
+
हमें कर्म-कौशल दो: <br>
+
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है, <br>
+
 
अभी कुछ नहीं बदला है...  
 
अभी कुछ नहीं बदला है...  
 
 
  
 
<span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५</span>
 
<span style="font-size:14px">सितम्बर १९६५</span>
 +
</poem>

21:33, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।

अब भी
ये रौंदे हुए खेत
हमारी अवरूद्ध जिजिविषा के
सहमे हुए साक्षी हैं;
अब भी
ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें
उन के अमानवी लोभ के
कुण्ठित, अशमित प्रेत:
अब भी
हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में
पहाड़ी खोहों में
चट्टानों की ओट में
वनैली ख़ूँख़ार आँखें
घात में बैठी हैं:
अब भी
दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर
जमे हैं गिद्ध
प्रतीक्षा के बोझ से
गरदनें झुकाए हुए।
नहीं अभी कुछ नहीं बदला है:
इस अनोखी रंगशाला में
नाटक का अन्तराल मानों
समय है सिनेमा का:
कितनी रील?
कितनी क़िस्तें?
कितनी मोहलत?

कितनी देर
जलते गाँवों की चिरायंध के बदले
तम्बाकू के धुएँ का सहारा?
कितनी देर
चाय और वाह-वाही की
चिकनी सहलाहट में
रुकेगा कारवाँ हमारा?

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है:
हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल
केवल परदा हैं—
विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं:
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर
बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैं:
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं,
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही
उन के पार है।

बन्दूक़ के कुन्दे से
हल के हत्थे की छुअन
हमें अभी भी अधिक चिकनी लगती,
संगीन की धार से
हल के फाल की चमक
अब भी अधिक शीतल,
और हम मान लेते कि उधर भी
मानव मानव था और है,
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं,
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत
लूट की बोटियों से अधिक है—
पर
अभी कुछ नहीं बदला है
क्योंकि उधर का निज़ाम
अभी उधर के किसान को
नहीं देता
आज़ादी
आत्मनिर्णय
आराम
ईमानदारी का अधिकार!

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है:
कुछ नहीं रुका है।
अब भी हमारी धरती पर
बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती हैं,
अब भी हमारे आकाश पर
धुएँ की रेखाएँ अन्धी
चुनौती लिख जाती हैं:
अभी कुछ नहीं चुका है।
देश के जन-जन का
यह स्नेह और विश्वास
जो हमें बताता है
कि हम भारत के लाल हैं—
वही हमें यह भी याद दिलाता है
कि हमीं इस पुण्य-भू के
क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं।

हमें बल दो, देशवासियों,
क्योंकि तुम बल हो:
तेज दो, जो तेजस् हो,
ओज दो, जो ओजस् हो,
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो, देशवासियों,
हमें कर्म-कौशल दो:
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है,
अभी कुछ नहीं बदला है...

सितम्बर १९६५