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एक काज को तजत, पहुँचि तिहि और सँभालत।
 
एक काज को तजत, पहुँचि तिहि और सँभालत।
 
होन देत नहिं हानि भली विधि देखत भालत॥२९॥
 
होन देत नहिं हानि भली विधि देखत भालत॥२९॥
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सबै सयाने, सबै अनेकन गुन गन मंडित।
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कोऊ एक, अनेक विपय के कोऊ पंडित॥३०॥
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कोऊ परमारथिक, कोऊ संसारिक काजहि।
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कोऊ दुहुँ सों दूर सदा सुख साजहि साजहिं॥३१॥
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पै मिलि बैठत जबै सबै रंगि जात एक रंग।
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भिन्न भिन्न वादित्र यथा मिलि बजत एक संग॥३२॥
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कारन सब मैं सब की रुचि कछु कछु समान सी।
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सबहि लहन निष्पाप सुखन की परी बानि सी॥३३॥
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नित प्रति विद्या विविध व्यसन, साहित्य समादर।
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सुख सामग्री सेवन, कौतूहल विनोद कर॥३४॥
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राग रंग संग जबै हाट सुन्दरता लागति।
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बहुधा ऐसे समय प्रीति की रीतहु जागति॥३५॥
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भरत आह नाले कोउ मोहत वाह वाह करि।
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कोऊ तन्मय होत ईस के रंग हियो भरि॥३६॥
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यह विचित्रता इतहिं दया करि ईस दिखावत।
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विकट विरुद्ध विधान बीच गुल अजब खिलावत॥३७॥
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रहत सदा सद्धर्म्म परायण लोग न्याय रत।
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काम क्रोध अरु मोह, लोभ सों बचत बचावत॥३८॥
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यथा लाभ संतुष्ट, अधिक उद्योग न भावत।
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बहु धन मान, बड़ाई के हित, चित न चलावत॥३९॥
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सदा ज्ञान वैराग्य योग की होत वारता।
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ईस भक्ति मै निरत, सबन के हिय उदारता॥४०॥
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"अहै दोष बिन ईश एक" यह सत्य कहावत।
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तासों जो कछु दोष इतै लखिबे मैं आवत॥४१॥
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22:21, 13 अगस्त 2016 का अवतरण

ईस कृपा सों यदपि निवास स्थान अनेकन।
भिन्न भिन्न ठौरन पर हैं सब सहित सुपासन॥२३॥

बड़ी बड़ी अट्टालिका सहित बाग तड़ागन।
नगर बीच, वन, शैल, निकट अरु नदी किनारन॥२४॥

इष्ट मित्र अरु सुजन सुहृद सज्जन संग निसि दिन।
जिन मैं बीतत समय अधिक तर कलह क्लेश बिन॥२५॥

अति बिशाल परिवार बीच मैं प्रेम परस्पर।
यथा उचित सन्मान समादर सहित निरन्तर॥२६॥

रहत मित्रता को सो बर बरताव सदाहीं।
इक जनहूँ को रुचत काज सों सबहिं सुहाहीं॥२७॥

रहत तहाँ तब लगि सों, जाको जहाँ रमत मन।
निज निज काज बिभाग करत चुप चाप सबै जान॥२८॥

एक काज को तजत, पहुँचि तिहि और सँभालत।
होन देत नहिं हानि भली विधि देखत भालत॥२९॥

सबै सयाने, सबै अनेकन गुन गन मंडित।
कोऊ एक, अनेक विपय के कोऊ पंडित॥३०॥

कोऊ परमारथिक, कोऊ संसारिक काजहि।
कोऊ दुहुँ सों दूर सदा सुख साजहि साजहिं॥३१॥

पै मिलि बैठत जबै सबै रंगि जात एक रंग।
भिन्न भिन्न वादित्र यथा मिलि बजत एक संग॥३२॥

कारन सब मैं सब की रुचि कछु कछु समान सी।
सबहि लहन निष्पाप सुखन की परी बानि सी॥३३॥

नित प्रति विद्या विविध व्यसन, साहित्य समादर।
सुख सामग्री सेवन, कौतूहल विनोद कर॥३४॥

राग रंग संग जबै हाट सुन्दरता लागति।
बहुधा ऐसे समय प्रीति की रीतहु जागति॥३५॥

भरत आह नाले कोउ मोहत वाह वाह करि।
कोऊ तन्मय होत ईस के रंग हियो भरि॥३६॥

यह विचित्रता इतहिं दया करि ईस दिखावत।
विकट विरुद्ध विधान बीच गुल अजब खिलावत॥३७॥

रहत सदा सद्धर्म्म परायण लोग न्याय रत।
काम क्रोध अरु मोह, लोभ सों बचत बचावत॥३८॥

यथा लाभ संतुष्ट, अधिक उद्योग न भावत।
बहु धन मान, बड़ाई के हित, चित न चलावत॥३९॥

सदा ज्ञान वैराग्य योग की होत वारता।
ईस भक्ति मै निरत, सबन के हिय उदारता॥४०॥

"अहै दोष बिन ईश एक" यह सत्य कहावत।
तासों जो कछु दोष इतै लखिबे मैं आवत॥४१॥