भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उझरे घर कुरिया / चेतन भारती" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चेतन भारती |संग्रह=ठोमहा भर घाम }} {{...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
{{KKCatGeet}}
 
{{KKCatGeet}}
 +
{{KKCatChhattisgarhiRachna}}
 
<poem>
 
<poem>
 
चलव अब ते सम्हलन,
 
चलव अब ते सम्हलन,

22:18, 26 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

चलव अब ते सम्हलन,
महतारी के कर्जा चुकाना हे ।
अपन बांह के करके भरोसा,
नवा जिन्गी के जोत जलाना हे ।।

स्वारथ में आँखी मुंदे हम,
परमारथ ल घला चबा डारेन ।
अपनेच ल बड़का कहाए खातिर,
अपन धरम के घेंघा दबा डारेन ।।
चल तो देखव बढ़के आगू,
उझरे धर धुंधिया अपन सजाना हे ।
चलव अब तो ....

महतारी के दुनों हाथ म,
आगी लगादीन दोखहा मन ।
दसो अंगुरिया के परे फोरा म,
नुन लगादीन चोरहा मन ।।
चारो कोती अबड़ अति मचे हे,
जरत अपन घर बचाना हे ।
चलव अब तो....

अंधियारी अंजोरी के मिलवट म,
घिघियावत हावे मानुखपन ।
मुक्का बनके सब देखत हावें,
चिचियावत हावे दर्रे किसाने मन ।।
ठानव मानव अब तो जानव,
भारत महतारी के मान बढ़ाना हे ।।
चलव अब तो ....