"ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर / कुँवर बेचैन" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँवर बेचैन |संग्रह= {{KKCatGeet}} <poem> ओढ़े...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=कुँवर बेचैन | |रचनाकार=कुँवर बेचैन | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
{{KKCatGeet}} | {{KKCatGeet}} | ||
<poem> | <poem> |
10:16, 17 दिसम्बर 2016 के समय का अवतरण
ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर
मुँह में धुआँ आँख में पानी
लेकर अपनी राम कहानी
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर ।
मेरी कुटिया के सम्मुख ही
ऊँचे घर में बड़ी धूप है
गली हमारी वर्फ़ हुई क्यों
आँगन सारा अंधकूप है
सिर्फ़ यही चढ़ते सूरज से माँग रहा इंसाफ़ दिसम्बर ।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।
पेट सभी की है मजबूरी
भरती नहीं जिसे मजदूरी
फुटपाथों पर नंगे तन क्या
हमें लेटना बहुत ज़रूरी
इस सब चाँदी की साज़िश को कैसे कर दे माफ़ दिसम्बर।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।
छाया, धूप, हवा, नभ सारा
इनका सही-सही बँटवारा
हो न सका यदि तो भुगतेगी
यह अति क्रूर समय की धारा
लिपटी-लगी छोड़कर अब तो कहता बिलकुल साफ़ दिसम्बर ।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।