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फूल भी खिलता रहा
तीर भी चलता रहा
इस तरह से हो गया मजबूत दिल
पत्थरों का भी वज़न सहने लगा
कौन काबू पा सका है प्यास पर
सामने बहती नदी को देखकर
कौन है मन जो नाचा मुग्ध हो
चाँदनी में निर्झरों की धार पर
 
तन की ये लाचारियाँ
मन की ये बीमारियाँ
आदमी को कर गयीं कमजोर यूँ
आप अपना शीश वो धुनने जगा
 
सामने है एक मरुथल उम्र का
मुश्किलों में भार पल-पल उम्र का
जूझते दिन-रात अन्तर्द्वन्द्व में
ढूँढते हैं एक सम्बल उम्र का
 
पाल लीं जो भ्रान्तियाँ
जिंन्दगी की ख़ामियाँ
दे गयी हैं सिर्फ पश्चाताप भर
प्राण जिसकी आग में जलने लगा
</poem>
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