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ख़तरा / अरुण कमल

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|संग्रह = सबूत / अरुण कमल
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जगे रहो
 
सोना नहीं है आज की रात
 
जलाए रहो लालटेन रात भर
 
मत सोचो कि पहरेदार आ गए हैं
 
और हाथ भर लम्बी टार्च लिए
 
घूम रहे हैं इधर-उधर फ़ोकस मारते
 
उनका भरोसा नहीं आज इस रात
 
ठीक भोर में जब ठोड़ा साफ़ जैसा लगे
 
हल्की हवा उठे
 
गरदन के रोएँ सिहरें
 
और तुम लालटेन की लौ झुका ज़रा-सी पीठ
 
:::::सीधा करो
 
और अचानक झप जाए आँख
 
तभी वे घुसेंगे ठीक भोर में
 
और पोंछ देंगे सारा घर
 
चैत की भोर से ज़्यादा ख़तरनाक कुछ भी नहीं
 
ख़तरा उससे है जो बिल्कुल ख़तरनाक नहीं ।
</poem>
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