|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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{{KKCatKavita}}<poem>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
१
सृष्टि के प्रारंभ में <br>मैने उषा के गाल चूमे,<br>बाल रवि के भाग्य वाले <br>दीप्त भाल विशाल चूमे, <br>प्रथम संध्या के अरुण दृग <br>चूम कर मैने सुलाए, <br>तारिका-कलि से सुसज्जित <br>नव निशा के बाल चूमे, <br>वायु के रसमय अधर <br>पहले सके छू होठ मेरे<br>मृत्तिका की पुतलियो से <br>आज क्या अभिसार मेरा? <br>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
२
विगत-बाल्य वसुंधरा के<br>उच्च तुंग-उरोज उभरे,<br>तरु उगे हरिताभ पट धर<br>काम के धव्ज मत्त फहरे,<br>चपल उच्छृंखल करों ने<br>जो किया उत्पात उस दिन,<br>है हथेली पर लिखा वह,<br>पढ़ भले ही विश्व हहरे;<br>प्यास वारिधि से बुझाकर<br>भी रहा अतृप्त हूँ मैं,<br>कामिनी के कंच-कलश से<br>आज कैसा प्यार मेरा!<br>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
३
इन्द्रधनु पर शीश धरकर<br>बादलों की सेज सुखकर<br>सो चुका हूँ नींद भर मैं<br>चंचला को बाहों में भर,<br>दीप रवि-शशि-तारकों ने<br>बाहरी कुछ केलि देखी,<br>देख, पर, पाया न कोई<br>स्वप्न वे सुकुमार सुंदर<br>जो पलक पर कर निछावर<br>थी गई मधु यामिनी वह;<br>यह समाधि बनी हुई है<br>यह न शयनागार मेरा!<br>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
४
आज मिट्टी से घिरा हूँ<br>पर उमंगें हैं पुरानी,<br>सोमरस जो पी चुका है<br>आज उसके हाथ पानी,<br>होठ प्यालों पर टिके तो<br>थे विवश इसके लिये वे,<br>प्यास का व्रत धार बैठा;<br>आज है मन, किन्तु मानी;<br>मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से <br>बिधा, जग, जान ले तू,<br>तन विकृत हो जाये लेकिन<br>मन सदा अविकार मेरा!<br>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
५
निष्परिश्रम छोड़ जिनको<br>मोह लेता विशॿन भर को,<br>मानवों को, सुर-असुर को,<br>वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,<br>भंग कर देता तपस्या<br>सिदॿध, ऋषि, मुनि सत्तमों की<br>वे सुमन के बाण मैंने, <br>ही दिये थे पंचशर को;<br>शक्ति रख कुछ पास अपने<br>ही दिया यह दान मैंने,<br>जीत पाएगा इन्हीं से<br>आज क्या मन मार मेरा!<br>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
६
प्राण प्राणों से सकें मिल<br>किस तरह, दीवार है तन,<br>काल है घड़ियां न गिनता,<br>बेड़ियों का शब्द झन-झन<br>वेद-लोकाचार प्रहरी<br>ताकते हर चाल मेरी,<br>बद्ध इस वातावरण में<br>क्या करे अभिलाष यौवन!<br>अल्पतम इच्छा यहां<br>मेरी बनी बंदी पड़ी है,<br>विश्व क्रीडास्थल नहीं रे<br>विश्व कारागार मेरा!<br>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
७
थी तृषा जब शीत जल की<br>खा लिये अंगार मैंने,<br>चीथड़ों से उस दिवस था<br>कर लिया श्रृंगार मैंने<br>राजसी पट पहनने को<br>जब हुई इच्छा प्रबल थी,<br>चाह-संचय में लुटाया<br>था भरा भंडार मैंने;<br>वासना जब तीव्रतम थी<br>बन गया था संयमी मैं,<br>है रही मेरी क्षुधा ही<br>सर्वदा आहार मेरा!<br>कह रहा जग वासनामय <br>हो रहा उद्गार मेरा!<br>
८
कल छिड़ी, होगी ख़तम कल <br>प्रेम की मेरी कहानी,<br>कौन हूं हूँ मैं, जो रहेगी <br>विश्व में मेरी निशानी? <br>क्या किया मैंने नही जो <br>कर चुका संसार अबतक? <br>वृद्ध जग को क्यों अखरती <br>है क्षणिक मेरी जवानी? <br>मैं छिपाना जानता तो <br>जग मुझे साधू समझता,<br>शत्रु मेरा बन गया है <br>छल-रहित व्यवहार मेरा! <br>कह रहा जग वासनामय <br>
हो रहा उद्गार मेरा!
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