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"जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

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माँ  
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* [[माँ]]
 
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* [[सो गई है मनुजता की संवेदना ]]
माँ कबीर की साखी जैसी
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* [[इतने आरोप न थोपो ]]
तुलसी की चौपाई-सी
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*[[अक्षर]]
माँ मीरा की पदावली-सी
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*[[रात की मुट्ठी]]
माँ है ललित स्र्बाई-सी।
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*[[अहिंसा के विरबे]]
 
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*[[बहते जल के साथ न बह]]
माँ वेदों की मूल चेतना
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माँ गीता की वाणी-सी
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माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी
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लोकोक्तर कल्याणी-सी।
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माँ द्वारे की तुलसी जैसी
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माँ बरगद की छाया-सी
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माँ कविता की सहज वेदना
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महाकाव्य की काया-सी।
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माँ अषाढ़ की पहली वर्षा
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सावन की पुरवाई-सी
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माँ बसन्त की सुरभि सरीखी
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बगिया की अमराई-सी।
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माँ यमुना की स्याम लहर-सी
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रेवा की गहराई-सी
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माँ गंगा की निर्मल धारा
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गोमुख की ऊँचाई-सी।
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माँ ममता का मानसरोवर
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हिमगिरि सा विश्वास है
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माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी
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कावा है कैलाश है।
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माँ धरती की हरी दूब-सी
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माँ केशर की क्यारी है
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पूरी सृष्टि निछावर जिस पर
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माँ की छवि ही न्यारी है।
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माँ धरती के धैर्य सरीखी
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माँ ममता की खान है
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माँ की उपमा केवल है
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माँ सचमुच भगवान है।
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****
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-डॉ० जगदीश व्योम
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सो गई है मनुजता की संवेदना  
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सो गई है मनुजता की संवेदना
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गीत के रूप में भैरवी गाइए
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गा न पाओ अगर जागरण के लिए
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कारवां छोड़कर अपने घर जाइए
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झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी
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आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी
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सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा
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कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी
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सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन
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उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।
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काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी
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ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण
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चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी
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और नीलाम होते रहे आचरण
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लेखनी छुप के आंसू बहाती रही
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उनको रखने को गंगाजली चाहिए।
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राजमहलों के कालीन की कोख में
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कितनी रंभाओं का है कुंआरा स्र्दन
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देह की हाट में भूख की त्रासदी
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और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन
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इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी
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अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।
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भूख के प'श्न हल कर रहा जो उसे
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है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे
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कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे
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और चाहे कि युग उसको सम्मान दे
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ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से
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खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए।
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कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
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है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण
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कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में
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कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण
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सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये
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इनमें ढल जाइए या चले आइए।
+
 
+
-डॉ॰ जगदीश व्योम
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*****
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इतने आरोप न थोपो  
+
 
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इतने आरोप न थोपो
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मन बागी हो जाए
+
मन बागी हो जाए,
+
वैरागी हो जाए
+
इतने आरोप न थोपो.......
+
 
+
यदि बांच सको तो बांचो
+
मेरे अंतस की पीड़ा
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जीवन हो गया तरंग रहित
+
बस पाषाणी क्रीडा
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मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
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जब अकुलाती है
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शब्दों की लहर लहर लहराकर
+
तपन बुझाती है
+
ये चिनगारी फिर से न मचलकर
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आगी हो जाए
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मन बागी हो जाए
+
इतने आरोप न थोपो..........
+
 
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खुद खाते हो पर औरों पर
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आरोप लगाते हो
+
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
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संग बिक जाते हो
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आरोपों की जीवन में जब-जब
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हद हो जाती है
+
परिचय की गांठ पिघलकर
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आंसू बन जाती है
+
नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
+
बैरागी हो जाए
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मन बागी हो जाए
+
इतने आरोप न थोपो.........
+
 
+
आरोपों की विपरीत दिशा में
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चलना मुझे सुहाता
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सपने में भी है बिना रीढ़ का
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मीत न मुझको भाता
+
आरोपों का विष पीकर ही तो
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मीरा घर से निकली
+
लेखनी निराला की आरोपी
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गरल पान कर मचली
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ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
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सहभागी हो जाए
+
मन बागी हो जाए
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इतने आरोप न थोपो .........
+
 
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क्यों दिए पंख जब उड़ने पर
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लगवानी थी पाबंदी
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क्यों रूप वहां दे दिया जहां
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बस्ती की बस्ती अंधी
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जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह
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करते जीवन क्रीड़ा
+
वे क्या जाने सुकरातों की
+
कैसी होती है पीड़ा
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जीवन्त बुद्धि वेदनापूत की
+
अनुरागी हो जाए
+
मन बागी हो जाए
+
इतने आरोप न थोपो.......
+
 
+
-डॉ॰ जगदीश व्योम
+
*****
+
अक्षर  
+
 
+
अक्षर कभी क्षर नहीं होता
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इसीलिए तो वह 'अक्षर' है
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क्षर होता है तन
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क्षर होता है मन
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क्षर होता है धन
+
क्षर होता है अज्ञान
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क्षर होता है
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मान और सम्मान
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परंतु नहीं होता है कभी क्षर
+
'अक्षर'
+
इसलिए
+
अक्षरों को जानो
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अक्षरों को पहचानो
+
अक्षरों को स्पर्श करो
+
अक्षरों को पढ़ो
+
अक्षरों को लिखो
+
अक्षरों की आरसी में
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अपना चेहरा देखो
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इन्हीं में छिपा है
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तुम्हारा नाम
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तुम्हारा ग्राम
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और तुम्हारा काम
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सृष्टि जब समाप्त हो जाएगी
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तब भी रह जाएगा 'अक्षर'
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क्यों कि 'अक्षर' तो ब्रह्म है
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और भला
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ब्रह्म भी कहीं मरता है?
+
आओ! बांचें
+
ब्रह्म के स्वरूप को
+
सीखकर अक्षर
+
 
+
-डॉ॰ जगदीश व्योम
+
****
+
रात की मुठ्ठी
+
 
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वक्त का आखेटक
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घूम रहा है
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शर संधान किए
+
लगाए है टकटकी
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कि हम
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करें तनिक सा प्रमाद
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और, वह
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दबोच ले हमें
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तहस नहस कर दे
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हमारे मिथ्याभिमान को
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पर
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आएगा सतत नैराश्य ही
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उसके हिस्से में
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क्यों कि
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हमने पहचान ली है
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उसकी पगध्वनि
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दूर हो गया है
+
हमसे
+
हमारा तंद्रिल व्यामोह
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हम ने पढ़ लिए हैं
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समय के पंखों पर उभरे
+
पुलकित अक्षर
+
जिसमें लिखा है कि-
+
आओ!
+
हम सब मिल कर
+
खोलें,
+
रात की मुठ्ठी को
+
जिसमें कैद है
+
समूचा सूरज।
+
 
+
-डॉ॰ जगदीश व्योम
+
*****
+
अहिंसा के बिरवे
+
 
+
 
+
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
+
बहुत लहलही आज हिंसा की फसलें
+
प्रदूषित हुई हैं धरा की हवाएँ।
+
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
+
 
+
 
+
बहुत वक़्त बीता कि जब इस चमन में
+
अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
+
थे सोये हुए भाव जर्नमन में गहरे
+
पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे,
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बने वृक्ष, वर्टवृक्ष, छाया घनेरी
+
धरा जिसको महसूसती आज तक है
+
उठीं वक़्त की आँधियाँ कुछ विषैली
+
नियति जिसको महसूसती आज तक है,
+
नहीं रख सके हम सुरक्षित धरोहर
+
अभी वक़्त है, हम अभी चेत जाएँ।
+
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
+
 
+
 
+
नहीं काम हिंसा से चलता है भाई
+
सदा अंत इसका रहा दु:खदाई
+
महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर
+
अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
+
रहे शुद्ध-मन, शुद्ध-तन, शुद्ध-चिंतन
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अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
+
दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा
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सुखद खूब होती अहिंसा की रोटी
+
नई इस सदी में, सघन त्रासदी में
+
नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ।
+
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
+
 
+
 
+
-र्डॉ० जगदीश 'व्योम'
+
 
+
 
+
*****
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बहते जल के साथ न बह  
+
 
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गजल
+
 
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बहते जल के साथ न बह
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कोशिश करके मन की कह।
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मौसम ने तेवर बदले
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कुछ तो होगी खास बज़ह।
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कुछ तो खतरे होंगे ही
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चाहे जहाँ कहीं भी रह।
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लोग तूझे कायर समझें
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इतने अत्याचार न सह।
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झूठ कपट मक्कारी का
+
चारण बनकर गजल न कह।
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-डॉ॰ जगदीश व्योम
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12:25, 5 अगस्त 2006 का अवतरण