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|रचनाकार=भवप्रीतानन्द ओझा
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|संग्रह=अंगिका के प्रतिनिधि प्रकृति कविता / गंगा प्रसाद राव
 
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13:48, 14 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

घुरी चलॅ मीत फेरू गांव में
मांटी हँकारै जहां सरँगॅ के छांव में
घुरी चलॅ मीत फेरू गांव में।

ससरी केॅ छुबै जबेॅ ललकी किरिनियां ने
जागै छै जोग जेना रोजे बिहनियां में
देव लोगें आपन्हैं सें कर्मयज्ञ साजि केॅ-

बान्हनें छै गेंठ जेना नांव में
घुरी चलॅ मीत फेरू गांव में।।

सोन्हॅ गंध मांटी के आभियों पछुआचै छौं,
पोखरी आ नद्दी खरिहानी वोलाबै छौं,
देखै छॅ की कुछु याद छौं?
आबै खिनी कहने रहौं जे ठाँव में???
घुरी चलॅ मीत फेरू गांव में।।

सपना सिंगार देखी फेरू सिहरै,
चिहंकी केॅ नींद खुलै रही-रही लहरै,
हरी-घुरी जीहा छछनै छै,
मॅन करै बार-बार रहतां,
परदेसी पियवा के बांह में।
घुरी चलॅ मीत फेरू गांव में।।

मनोहारी लीला देखॅ यहां प्रकृति के
हमरॅ भारत धरोहर छै संस्कृति के,
छलकै छै प्राण यहांकरॅगांव में।
घुरी चलॅ मीत फेरू गांव में।।