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"खा गया वक्त हमें / साग़र पालमपुरी" के अवतरणों में अंतर

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खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
 
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हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह  
 
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह  
 
  
 
रूह की झील में चाहत के कँवल खिलते हैं
 
रूह की झील में चाहत के कँवल खिलते हैं
 
 
किसी बैरागी के पाक़ीज़ा ख़यालों की तरह   
 
किसी बैरागी के पाक़ीज़ा ख़यालों की तरह   
 
  
 
थे कभी दिल की जो हर एक तमन्ना का जवाब
 
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आज क्यों ज़ेहन में उतरे हैं सवालों की तरह ?  
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साथ उनके तो हुआ लम्हों में सालों का गुज़र
 
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उनसे बिछुड़े तो लगे लम्हे भी सालों की तरह  
 
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ज़ख़्म तलवार के गहरे भी हों भर जाते हैं
 
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लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह  
 
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हम समझते रहे कल तक जिन्हें रहबर अपने
 
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पथ से भटके वही आवारा ख़्यालों की तरह  
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इनको कमज़ोर न समझो कि किसी रोज़ ये लोग
 
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मोड़ देंगे इसी शमशीर को ढालों की तरह   
 
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फूल को शूल समझते हैं ये दुनिया वाले
 
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बीते इतिहास के विपरीत हवालों की तरह  
 
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आफ़रीं उनपे जो तौक़ीर—ए—वतन की ख़ातिर
 
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दार पर झूल गए झूलने वालों की तरह  
 
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हम भरी भीड़ में हैं आज भी तन्हा—तन्हा
 
हम भरी भीड़ में हैं आज भी तन्हा—तन्हा
 
 
अह्द—ए—पारीना के वीरान शिवालों की तरह  
 
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ग़म से ना—आशना इंसान का जीना है फ़ज़ूल
 
ग़म से ना—आशना इंसान का जीना है फ़ज़ूल
 
 
ज़ीस्त से लिपटे हैं ग़म पाँवों के छालों की तरह  
 
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अब कन्हैया है न हैं गोपियाँ ब्रज में ‘साग़र’!
 
अब कन्हैया है न हैं गोपियाँ ब्रज में ‘साग़र’!
 
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हम हैं फ़ुर्क़तज़दा मथुरा के गवालों की तरह</poem>
हम हैं फ़ुर्क़तज़दा मथुरा के गवालों की तरह
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18:44, 1 मार्च 2009 के समय का अवतरण

खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह

रूह की झील में चाहत के कँवल खिलते हैं
किसी बैरागी के पाक़ीज़ा ख़यालों की तरह

थे कभी दिल की जो हर एक तमन्ना का जवाब
आज क्यों ज़ेहन में उतरे हैं सवालों की तरह ?

साथ उनके तो हुआ लम्हों में सालों का गुज़र
उनसे बिछुड़े तो लगे लम्हे भी सालों की तरह

ज़ख़्म तलवार के गहरे भी हों भर जाते हैं
लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह

हम समझते रहे कल तक जिन्हें रहबर अपने
पथ से भटके वही आवारा ख़्यालों की तरह

इनको कमज़ोर न समझो कि किसी रोज़ ये लोग
मोड़ देंगे इसी शमशीर को ढालों की तरह

फूल को शूल समझते हैं ये दुनिया वाले
बीते इतिहास के विपरीत हवालों की तरह

आफ़रीं उनपे जो तौक़ीर—ए—वतन की ख़ातिर
दार पर झूल गए झूलने वालों की तरह

हम भरी भीड़ में हैं आज भी तन्हा—तन्हा
अह्द—ए—पारीना के वीरान शिवालों की तरह

ग़म से ना—आशना इंसान का जीना है फ़ज़ूल
ज़ीस्त से लिपटे हैं ग़म पाँवों के छालों की तरह

अब कन्हैया है न हैं गोपियाँ ब्रज में ‘साग़र’!
हम हैं फ़ुर्क़तज़दा मथुरा के गवालों की तरह