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कसमसाती मुट्ठियाँ हैंलग रहा बीमार सूरजतिलमिलाते हैं षिखरभोर कापूछते, हिमनद पिघलते हैंकहो!हम क्या करेंकैसा प्रहर है?
छोड़ दें ये आदतेंमौन तुम होछिद्रान्वेशण की ग़लतमौन हम हैंइन अँधेरों में कहीं परमौन साधे हैं हवाएँरोशनी तो हैऔर येजल रहा है एक जुगनूदहशत भरी सीजो निरन्तर रात भरमौन हैं गुमसुम दिषाएँहौसलों के साथ कुछकौन बोलेदीवानगी तो है।कौन सुनता हैजो धरे हैं देश के हितकिसी को अब यहाँ परसिर हथेली तुमुल-ध्वनि-कोलाहलों मेंशब्द की सीमा कहाँ पर अडिग?पंथ इनकेधूल में बारूद बिखरीस्वस्ति वाचनऔर दीप मंगल के धरे।पानी में ज़हर है!
रोटियाँ सेकें नहींआदमी पत्थर हुआ हैयह यज्ञ पावन याकि केवल यन्त्र हैवहबन सकेंहो गया संवेदना से शून्यसमिधा बनेंसारा तन्त्र है यहअक्शत बने, चन्दन बनेप्यार-ममता-नेह-नातेज्योति के इस प्रज्ज्वलन केखो गए जाने कहाँ सबयाज्ञनिक हैं हमआहुती नफरतों के घृत बनेंबीज कोईअर्पण बनें, अर्चन बनें।बो गया आकर यहाँ कब?हो विमुग्धित गन्ध मण्डितमन्त्र-गुंजित युगधराकौन अपना है परायाचिन्तनों में फिर किसीनव ज्योति केयह निर्झर झरें।मुखौटों का शहर है।
स्वर हमारेसिर पटकती है अहल्यातन्त्र प्राणों केराम जाने है कहाँ परसमर्पित हैंहर पुरुश में छद्म-वेषीये उभरते ज्वार सारे बन्ध तोड़ेंगेइन्द्र ही दिखता यहाँ परउठ रहे हैं हरदिषा रणभेरियों का पुरुष गौतमखड़ा हैशाप का पाखण्ड धारेहै कोईदेवत्व के स्वरअब किसी दशकन्ध कीकुत्सित मुखौटों को उघारेलंका न छोड़ेंगेराजपथ भयभीत सेधर्म की संस्थापना-हितदुष्कर्म पीड़ितमन्त्रणाएँ हों विफलहर डगर है।तब उचित द्रोपदी शकुन्तला होया, स्वयं हो जानकी हीक्यों सदा नारी रही हैशस्त्र पात्र हर अपमान कीहीसंसाधना को मौन के इस षून्य पट परदहकते हैं प्रश्न कितनेधर सकेंउत्तर इन्हें हमशब्द ही वरें।हैं कहाँ इतने?है अलामत ज्वार कीतुम समझ बैठे होलहर है।
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