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"पहाड़ / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

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कैसा वलंद है पहाड़
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उधर ही भागा जा रहा है
  
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पहाड़ छूता है
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जैसे खड़ी होती है आदमी के सामने
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कैसे चढे जा रहे
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उसका रुख मोड़ती हुई
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चढ तो कोई भी सकता है पहाड
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पर टिकता वही है
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जिसकी जडें हो गहरी
  
खड़ा है यह हवाओं के सामने
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बादलों की तरह
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उडकर
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जाओगे पहाड तक
  
 
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तो
चोटी से देखता हूँ
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नदी की तरह
 
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उतार देंगे पहाड
चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक
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हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर .
 
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इसकी छाती पर
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जो धीरे-धीरे शहरों को
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ढो ले जाएंगे पहाड़
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जहाँ वे सड़कों, रेल लाइनों पर बिछ जाएंगे
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बदल जाएंगे छतों में
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धीरे-धीरे मिट जाएंगे पहाड़
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तब शायद मंगल से लाएंगे हम उनकी तस्वीरें
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या बृहस्पति, सूर्य से
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बाघ-चीते थे
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तो रक्षा करते थे पहाड़ों की, जंगलों की
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आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है
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अब पहाड़ों को तो चिड़ि़याख़ानों में
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रखा नहीं जा सकता
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प्रजनन कराकर बढ़ाई नहीं जा सकती
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इनकी तादाद
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जब नहीं होंगे सच में
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तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़
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और भी ख़ूबसरत होते बादलों को छूते से
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हो सकता है
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वे काले से
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नीले, सफ़ेद
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या सुनहले हो जाएँ
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द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं की तरह
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और उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए
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वे हो जाएँ लुभावने
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केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।
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08:50, 1 अगस्त 2008 का अवतरण

गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़ जिसे देखो उधर ही भागा जा रहा है

बादल पहाडों को भागते हैं चाहे बरस जाना पडे टकराकर हवा पहाड़ को जाती है टकराती है ओर मुड जाती है सूरज सबसे पहले पहाड़ छूता है भेदना चाहता है उसका अंधेरा चांदनी वहीं विराजती है पड जाती है धूमिल

पर पेडों को देखे कैसे चढे जा रहे जमे जा रहे जाकर

चढ तो कोई भी सकता है पहाड पर टिकता वही है जिसकी जडें हो गहरी

बादलों की तरह उडकर जाओगे पहाड तक

तो नदी की तरह उतार देंगे पहाड हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर .