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"एक नन्ही-सी धोबिन (चिरैया) / अनामिका" के अवतरणों में अंतर

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'''(गुरू धोबी सिख कापरा, साबुन सिरजनहार)'''
  
दुनिया के तुडे-मुडे सपनों पर, देखो-<br>
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कैसे वह चला रही है<br>
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दुनिया के तुडे-मुडे सपनों पर, देखो-
लाल, गरम इस्तिरी!<br>
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कैसे वह चला रही है
जब इस शहर में नई आई थी-<br>
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लाल, गरम इस्तिरी!
लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी<br>
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जब इस शहर में नई आई थी-
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!<br>
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लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी
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जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!
चुपचाप<br>
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ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी
सारे मुहल्ले में।<br>
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चुपचाप
आती वह चार बजे<br>
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सारे मुहल्ले में।
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आती वह चार बजे
हाथ बाँधकर<br>
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हाथ बाँधकर
अपनी जंगाई हुई सी<br>
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टेक लेता सर
उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर<br>
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अपनी जंगाई हुई सी
और धूप लगने लगती<br>
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उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर
एक इत्ता-सा फुँदना-<br>
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और धूप लगने लगती
लडकी की लम्बी परांदी का।<br>
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कई बरस<br>
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लडकी की लम्बी परांदी का।
हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-<br>
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कई बरस
उसके मतलब का<br>
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हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-
कोई शब्द नहीं मिला।<br>
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उसके मतलब का
चुपचाप सोचती रही देर तक,<br>
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कोई शब्द नहीं मिला।
लगा उसे-<br>
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चुपचाप सोचती रही देर तक,
इस्तिरी का यह<br>
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लगा उसे-
अध सुलगा कोयला ही हो शायद<br>
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इस्तिरी का यह
शब्द उसके काम का!<br>
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अध सुलगा कोयला ही हो शायद
जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है<br>
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शब्द उसके काम का!
नम्बर कपडों के<br>
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जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है
वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।<br>
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नम्बर कपडों के
लेकर उजास और खुशबू<br>
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वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।
मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,<br>
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लेकर उजास और खुशबू
मजबूती पारे से<br>
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मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,
धार और विस्तार<br>
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मजबूती पारे से
अलगनी से<br>
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धार और विस्तार
उसने<br>
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एक नई भाषा गढी।<br>
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धो रही है<br>
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एक नई भाषा गढी।
देखो कैसे लगन और जतन से <br>
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धो रही है
दुनिया के सब दाग-धब्बे।<br>
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देखो कैसे लगन और जतन से  
इसके उस ठेले पर<br>
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दुनिया के सब दाग-धब्बे।
पडी हुई गठरी है<br>
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इसके उस ठेले पर
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पडी हुई गठरी है
 
पृथ्वी।
 
पृथ्वी।
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01:35, 6 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

(गुरू धोबी सिख कापरा, साबुन सिरजनहार)


दुनिया के तुडे-मुडे सपनों पर, देखो-
कैसे वह चला रही है
लाल, गरम इस्तिरी!
जब इस शहर में नई आई थी-
लगता था, ढूंढ रही है भाषा ऐसी
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!
ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी
चुपचाप
सारे मुहल्ले में।
आती वह चार बजे
जब सूरज
हाथ बाँधकर
टेक लेता सर
अपनी जंगाई हुई सी
उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर
और धूप लगने लगती
एक इत्ता-सा फुँदना-
लडकी की लम्बी परांदी का।
कई बरस
हमारी भाषा के मलबे में ढूंढा-
उसके मतलब का
कोई शब्द नहीं मिला।
चुपचाप सोचती रही देर तक,
लगा उसे-
इस्तिरी का यह
अध सुलगा कोयला ही हो शायद
शब्द उसके काम का!
जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है
नम्बर कपडों के
वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी।
लेकर उजास और खुशबू
मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,
मजबूती पारे से
धार और विस्तार
अलगनी से
उसने
एक नई भाषा गढी।
धो रही है
देखो कैसे लगन और जतन से
दुनिया के सब दाग-धब्बे।
इसके उस ठेले पर
पडी हुई गठरी है
पृथ्वी।