|संग्रह=आकुल अंतर / हरिवंशराय बच्चन
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वह नभ कंपनकारी समीर,
जिसने बादल की चादर को
दो झटके में कर तार-तार,
दृढ़ गिरि श्रृंगों की शिला हिला,
जिसने क्षिति के वक्षस्थल को
निज तेतधार तेज धार से दिया चिरचीर,
कर दिए अनगिनत नगर-ग्राम-
घर बेनिशान कर मग्न-नीर,
होता समाप्त अब वह प्रबाहप्रवाह
तट-शिला-खंड पर क्षीण-क्षीण!
गिरने को बनकर वज्र शाप,
जो चलीभस्म चली भस्म कर देने को
यक यह निखिल सृष्टि बन प्रलय ताप;
होती समाप्त अब वही पीर,