"अन्त की कल्पना / चन्दन सिंह" के अवतरणों में अंतर
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मुझे मारना | मुझे मारना | ||
− | तो अकेले | + | तो अकेले बिलकुल अकेले मारना मुझे |
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− | मुझे | + | |
मेरे साथ पानी को मत मारना | मेरे साथ पानी को मत मारना | ||
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साफ़ और ठण्डा | साफ़ और ठण्डा | ||
कि धोई जा सके मेरी लाश | कि धोई जा सके मेरी लाश | ||
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बची रहे हवा | बची रहे हवा | ||
जो किन्हीं दिशाओं की ओर नहीं | जो किन्हीं दिशाओं की ओर नहीं | ||
फेफड़ों की ओर बहती है | फेफड़ों की ओर बहती है | ||
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बहती हुई हवा आदतन मेरे मृत फेफड़ों में पहुँचे | बहती हुई हवा आदतन मेरे मृत फेफड़ों में पहुँचे | ||
जहाँ उसे शोक हो | जहाँ उसे शोक हो | ||
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बचा रहे यह मकान | बचा रहे यह मकान | ||
कि उठ सके यहाँ से उस शाम | कि उठ सके यहाँ से उस शाम | ||
चूल्हे के धुएँ की जगह विलाप | चूल्हे के धुएँ की जगह विलाप | ||
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और बचे रहें पेड़ भी | और बचे रहें पेड़ भी | ||
जो दे सकें मेरी चिता के लिए लकड़ियाँ | जो दे सकें मेरी चिता के लिए लकड़ियाँ | ||
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सच मानिए | सच मानिए | ||
मैं किसी वृक्ष की गहरे कुएँ जैसी छाया को याद करूँगा | मैं किसी वृक्ष की गहरे कुएँ जैसी छाया को याद करूँगा | ||
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तो किसी परमाणु की नाभि में नहीं | तो किसी परमाणु की नाभि में नहीं | ||
मेरी ही नाभि में घोंप देना कोई खंज़र | मेरी ही नाभि में घोंप देना कोई खंज़र | ||
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खंज़र अगर किसी म्यूज़ियम का हो | खंज़र अगर किसी म्यूज़ियम का हो | ||
तो और भी अच्छा | तो और भी अच्छा | ||
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मुग्ध तो हो सकूँगा | मुग्ध तो हो सकूँगा | ||
− | अकेले | + | अकेले बिलकुल अकेले मारना मुझे |
− | + | ||
− | बिलकुल | + | |
− | अकेले | + | |
− | + | ||
− | मारना | + | |
− | + | ||
− | मुझे | + | |
सबके साथ | सबके साथ | ||
एक सार्वजनिक मृत्यु में सम्मिलित होते हुए | एक सार्वजनिक मृत्यु में सम्मिलित होते हुए | ||
मुझे शर्म आएगी | मुझे शर्म आएगी | ||
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मेरी बायीं जाँघ पर जो एक काला-सा तिल है | मेरी बायीं जाँघ पर जो एक काला-सा तिल है | ||
उसी की तरह निजी और गोपनीय | उसी की तरह निजी और गोपनीय |
15:15, 31 मार्च 2019 के समय का अवतरण
मुझे मारना
तो अकेले बिलकुल अकेले मारना मुझे
मेरे साथ पानी को मत मारना
हवा को पेड़ों को
लोगों को मकानों को मत मारना
अकेले बिलकुल अकेले मारना मुझे
मैं चाहता हूँ
मेरे मरने के बाद भी बचा रहे पानी
साफ़ और ठण्डा
कि धोई जा सके मेरी लाश
बची रहे हवा
जो किन्हीं दिशाओं की ओर नहीं
फेफड़ों की ओर बहती है
बहती हुई हवा आदतन मेरे मृत फेफड़ों में पहुँचे
जहाँ उसे शोक हो
बचा रहे यह मकान
कि उठ सके यहाँ से उस शाम
चूल्हे के धुएँ की जगह विलाप
और बचे रहें पेड़ भी
जो दे सकें मेरी चिता के लिए लकड़ियाँ
सच मानिए
मैं किसी वृक्ष की गहरे कुएँ जैसी छाया को याद करूँगा
और चला जाऊँगा
चिता की अग्नि के पार बिना जले
और लोग तो ख़ैर बचे ही रहने चाहिए
चार तो कन्धा देने के लिए ही
कुछ रोने -बिलखने के लिए भी
मरने के बाद
मैं महज एक लाश बनना चाहता हूँ
जान-पहचान वाला जिसकी शिनाख़्त कर सके
मुझे मारना हो
तो किसी परमाणु की नाभि में नहीं
मेरी ही नाभि में घोंप देना कोई खंज़र
खंज़र अगर किसी म्यूज़ियम का हो
तो और भी अच्छा
कम से कम
मरते-मरते उसकी मूठ पर कलात्मक नक़्क़ाशी को निहार
मुग्ध तो हो सकूँगा
अकेले बिलकुल अकेले मारना मुझे
सबके साथ
एक सार्वजनिक मृत्यु में सम्मिलित होते हुए
मुझे शर्म आएगी
मेरी बायीं जाँघ पर जो एक काला-सा तिल है
उसी की तरह निजी और गोपनीय
चाहता हूँ मैं अपनी मृत्यु
पर क्या वे सुनेंगे मेरी बात ?
ऐसे समय
जब एक अकेले आदमी की हत्या में
बहुत कम रह गई है हत्यारों की दिलचस्पी ।