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"एक ध्वनि गूँजे / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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दीमक चाटे पुस्तक को ज्यों, | दीमक चाटे पुस्तक को ज्यों, | ||
− | जग का फेरा बड़ा कठिन है। | + | जग का फेरा बड़ा कठिन है। |
एक-एक पन्ना समाप्त हो गया, | एक-एक पन्ना समाप्त हो गया, | ||
− | युग | + | युग सा पल-छिन, पल-छिन है। |
− | हँसी विलग-विदा कन्या | + | हँसी विलग-विदा कन्या सी, |
− | मन | + | मन उपवन में घना अंधेरा। |
− | + | आँखें निचुड़ हुई पत्थर सी , | |
− | हुआ मन पतझड़ का डेरा। | + | हुआ मन पतझड़ का डेरा। |
− | सूने घर में स्वर लहरी | + | सूने घर में स्वर लहरी सी, |
− | + | ध्वनि गूँजती मधुर तुम्हारी। | |
− | कुछ तो ताल बजे ठहरी | + | कुछ तो ताल बजे ठहरी सी, |
− | + | लयबद्ध होती गति हमारी। | |
+ | जीवन सुखमय सुन्दर होता, | ||
+ | लेकिन सब कुछ कल्पित है। | ||
+ | स्पर्श सदा उन्माद ही देता, | ||
+ | बिन तुम मन तो द्रवित है। | ||
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+ | मैं काश! तुम्हारी गोदी में | ||
+ | सिर रख सिसक-रो पाती। | ||
+ | थक जाती रोते-रोते जब | ||
+ | नैन मूँद सदा को सो जाती। | ||
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16:33, 2 मई 2019 के समय का अवतरण
दीमक चाटे पुस्तक को ज्यों,
जग का फेरा बड़ा कठिन है।
एक-एक पन्ना समाप्त हो गया,
युग सा पल-छिन, पल-छिन है।
हँसी विलग-विदा कन्या सी,
मन उपवन में घना अंधेरा।
आँखें निचुड़ हुई पत्थर सी ,
हुआ मन पतझड़ का डेरा।
सूने घर में स्वर लहरी सी,
ध्वनि गूँजती मधुर तुम्हारी।
कुछ तो ताल बजे ठहरी सी,
लयबद्ध होती गति हमारी।
जीवन सुखमय सुन्दर होता,
लेकिन सब कुछ कल्पित है।
स्पर्श सदा उन्माद ही देता,
बिन तुम मन तो द्रवित है।
मैं काश! तुम्हारी गोदी में
सिर रख सिसक-रो पाती।
थक जाती रोते-रोते जब
नैन मूँद सदा को सो जाती।