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मेले में / अजित कुमार

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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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मैं इस दुनिया में वैसा ही ख़ुश हूँ,
 
जैसे: मेले में छोटा बच्चा हूँ।
 
::इस बच्चे ने मिट्टी की मूरत को,
 
::मैंने हर चलती-फिरती सूरत को,
 
:::उत्सुकता से, हैरत से देखा है।
 
फिर हमने : यानी मैं औ' मेरे बाहर-भीतर के
 
:::उस छोटे-नन्हे बच्चे ने :
 
हम दोनों ने
 
:अपने से ज़्यादा उसको माना है ।
 
:अपने ढंग से जाना-पहचाना है।
 
::यों : ऐसा हुआ कि नक़ली फूलों को
 
::मेले में जाकर फूले बच्चे ने
 
असली से भी कुछ बढकर जाना है,
 
यों : हुआ कि गैस-भरे गुब्बारे को
 
सपनों का, परियों का घर माना है-
 
अब झूठा हो तो हो
 
मैं तो उसको भी माने बैठा सच्चा हूँ ।
 
हाँ, कहा न मैंने-- मेले में आया हूँ, बच्चा हूँ ।
 
::::देखिए मुझे -–कैसा हूँ,
 
:::::दुनिया के मेले में हूँ,
 
:::आती-जाती भीड़ों में, धक्कों में,
 
:::::रेलों में हूँ,
 
:::मैं धक्के पाकर ख़ुश हूँ,
 
:::ठोकर खाकर हँसता हूँ
 
ज़्यादा से ज़्यादा भीड़ देखता हूँ-
 
:::::जा धँसता हूँ।
 
सम्मुख होकर जो भी आया है, और गया भी है,
 
बांधा है उसने मुझको, वह हर बार नया भी है ।
 
मैं चकित-भ्रमित हो आँखें फाड़े देखे लेता हूँ,
 
:भीतर का सब उल्लास-लास देता हूँ, देता हूँ…
 
:::यह जीवन मुझको हर्षित करता है,
 
:::मानें : बेहद आकर्षित करता है ।
 
:मामूली खेल-तमाशों में खोया रह जाता हूँ,
 
:::::कुछ गाता हूँ-
 
::टूटे-फूटे स्वर में कुछ गाता हूँ-
 
क्या जाने कब की सुनी हुई लय को दुहराता हूँ,
 
इस प्रौढ, परिष्कत, सभ्य, सुसंस्कृत
 
जलसे में, संभव है, कच्चा हूँ …
 
फिर कहता- दुनिया के मेले में केवल बच्चा हूँ
 
::::इसलिए बहुत ख़ुश हूँ,
 
::सच मानें : बहुत-बहुत ख़ुश हूँ ।
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