भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जीवन बस अपना होता है / मानोशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
छो |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | जीवन बस अपना होता है, | |
− | + | अपने ही सँग जीना सीखो॥ | |
− | + | ||
− | + | जब-जब आशा के पौधोँ को | |
− | + | सींचा जिस ने बडे जतन से | |
− | + | फूल खिलेँगे, मोती देँगे, | |
− | + | सपना बोया बहुत लगन से, | |
− | + | माली ने निष्ठुरता से यूँ | |
− | + | अधखिलती कलियों को काटा | |
− | + | रँगहीन था रक्त बहा जो | |
− | + | क्या होती परवाह किसी को॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | नई-पुरानी छोटी-छोटी | |
− | + | आशाओं के बादल जोडे, | |
− | + | कहीं सितारा, कहीं चँद्रमा, | |
− | + | झिलमिल रातें, सपने तोड़े, | |
− | + | सोचा छू ले पँख लगा कर, | |
− | + | ऐसी आँधी चली अचानक | |
− | + | सावन बरसा पर तरसा कर | |
− | + | फिर से प्यासा रखा नदी को॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | हम हैं जो बुनते अनदेखे | |
− | + | सब आशंकाओं के जाले, | |
− | जो | + | हम ही होते शत्रु स्वयं के |
− | + | अपने से ही चलते चालें, | |
− | + | तेज़ धार में समझबूझ कर | |
− | + | दे देते पतवार नाव की, | |
− | + | गहरे जल के हिचकोलों में | |
− | + | दोषी ठहराते माझी को॥ | |
− | + | ||
− | + | जीवन बस अपना होता है, | |
− | + | अपने ही सँग जीना सीखो॥ | |
</poem> | </poem> |
09:28, 26 अगस्त 2019 के समय का अवतरण
जीवन बस अपना होता है,
अपने ही सँग जीना सीखो॥
जब-जब आशा के पौधोँ को
सींचा जिस ने बडे जतन से
फूल खिलेँगे, मोती देँगे,
सपना बोया बहुत लगन से,
माली ने निष्ठुरता से यूँ
अधखिलती कलियों को काटा
रँगहीन था रक्त बहा जो
क्या होती परवाह किसी को॥
नई-पुरानी छोटी-छोटी
आशाओं के बादल जोडे,
कहीं सितारा, कहीं चँद्रमा,
झिलमिल रातें, सपने तोड़े,
सोचा छू ले पँख लगा कर,
ऐसी आँधी चली अचानक
सावन बरसा पर तरसा कर
फिर से प्यासा रखा नदी को॥
हम हैं जो बुनते अनदेखे
सब आशंकाओं के जाले,
हम ही होते शत्रु स्वयं के
अपने से ही चलते चालें,
तेज़ धार में समझबूझ कर
दे देते पतवार नाव की,
गहरे जल के हिचकोलों में
दोषी ठहराते माझी को॥
जीवन बस अपना होता है,
अपने ही सँग जीना सीखो॥