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"आज / यतीश कुमार" के अवतरणों में अंतर

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और इंसान ???
 
और इंसान ???
 
इंसान ने इन सबकी शक्ल चुरा ली है
 
इंसान ने इन सबकी शक्ल चुरा ली है
 
@यतीश कुमार
 
 
देह, बाज़ार और रोशनी - 1
 
 
उस कोने में धूप
 
कुछ धुँधली सी पड़ रही है
 
 
रंगीन लिबास में
 
मुस्कुराहट
 
नक़ाब ओढ़े घूम रही है
 
 
उस गली में पहुँचते ही
 
बसंत पीला से गुलाबी हो जाता है
 
 
इंद्रधनुषी उजास किरणें
 
उदास एकरंगी हो जाती है
 
 
और वहाँ से गुज़रती हवा
 
थोड़ी सी नमदार
 
थोड़ी सी शुष्क
 
नमक से लदी
 
भारीपन के साथ
 
हर जगह पसर जाती है
 
 
हवा में सिर्फ़ देह का पसीना तैरता है
 
 
दर्द और उबासी में घुलती हँसी
 
ख़ूब ज़ोर से ठहाके मारती है
 
सब रूप बदल कर मिलते है वहाँ
 
 
सिर्फ मिट्टी जानती है
 
बदन पिघलने का सोंधापन
 
और बर्दाश्त कर लेती है
 
हर पसीने की दुर्गन्ध
 
 
उन्ही मिट्टियों के ढूह पर
 
बालू से घर बनाता है
 
एक आठ साल का बच्चा
 
और ठीक उसी समय
 
एक बारह साल की लड़की
 
कुछ अश्लील पन्नों को फाड़ती है
 
और लिखती है आज़ादी के गीत
 
 
पंद्रह अगस्त को बीते
 
अभी कुछ दिन ही हुए है
 
 
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19:05, 17 सितम्बर 2019 के समय का अवतरण

वक़्त ने अपनी शक्ल छुपा दी
और घड़ी ने अपने हाथ
बर्फ़ पिघलने और
नदी जमने लगी है
पगडंडियाँ हो रही हैं विलुप्त
और रास्ते लगें हैं फैलने

केंचुओं ने छोड़ दिया है
मिट्टी का साथ
और मिट्टी ने किसानों का
बारिश ने ही
चुरा लिया है
मिट्टी से सोंधापन

गुलाब के काँटे
अब चुभते नहीं
आघात करते हैं
कमल अब सूरज को देख नहीं खिलता
छुइमुई ने भी शर्माना छोड़ दिया है
और दीमक
दीमक अब लोहे को भी चाट जाता है

नेवला बिल में घुस गया है
साँप बिल में अब नहीं रहता
शहर में घुस आया है
सियार अब आसमान ताके
आवाज़ नहीं लगाता
मुँह झुकाए रिरियाता है।

और इंसान ???
इंसान ने इन सबकी शक्ल चुरा ली है