"इश्तहार / कुमार विकल" के अवतरणों में अंतर
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और हमें विश्व बैंक से नया क़र्ज़ा मिल रहा है | और हमें विश्व बैंक से नया क़र्ज़ा मिल रहा है | ||
− | इस क़र्ज़ से कई कारखाने लगाए | + | इस क़र्ज़ से कई कारखाने लगाए जाएंगे |
− | कारखानों से कई धंधे चलाए | + | कारखानों से कई धंधे चलाए जाएंगे |
उन धंधों से लाखों का लाभ होगा | उन धंधों से लाखों का लाभ होगा | ||
− | उस लाभ से और कारख़ाने लगाए | + | उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे |
− | उन कारख़ानों से और उद्योग चलाए | + | उन कारख़ानों से और उद्योग चलाए जाएंगे |
− | उस लाभ से और कारख़ाने लगाए | + | उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे |
इस तरह लाभ—दर—लाभ के बाद | इस तरह लाभ—दर—लाभ के बाद | ||
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जो शुभ लाभ होगा | जो शुभ लाभ होगा | ||
− | उससे ग़रीबों के लिए घर बनाए | + | उससे ग़रीबों के लिए घर बनाए जाएगे |
− | उन पर उन्हीं की शान के झंडे लहराए | + | उन पर उन्हीं की शान के झंडे लहराए जाएंगे |
सभी ग़रीब एक आवाज़ से बोलें— | सभी ग़रीब एक आवाज़ से बोलें— | ||
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हमें उसे ज़बर्दस्ती इस दीवार के पास लाना है | हमें उसे ज़बर्दस्ती इस दीवार के पास लाना है | ||
− | और इस इश्तहार को पढ़वाना | + | और इस इश्तहार को पढ़वाना है। |
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और आजकल सरकारी इश्तहार | और आजकल सरकारी इश्तहार | ||
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दीवार पर चिपका | दीवार पर चिपका | ||
− | कोई देवता या अवतार | + | कोई देवता या अवतार है। |
10:09, 26 अगस्त 2008 के समय का अवतरण
इसे पढ़ो
इसे पढ़ने में कोई डर या ख़तरा नहीं है
यह तो एक सरकारी इश्तहार है
और आजकल सरकारी इश्तहार
दीवार पर चिपका कोई देवता या अवतार है
इसे पूजो !
इसमें कुछ संदेश हैं
- सूचनाएँ हैं
कुछ आँकड़े हैं
- योजनाएँ हैं
कुछ वायदे हैं
- घोषणाएँ हैं
इस देववाणी को पढ़ो
और दूसरों को पढ़कर सुनाओ—
कि देश कितनी तरक्की कर रहा है
कि दुनिया में हमारा रुतबा बढ़ रहा है
चीज़ों की कीमतें गिर रही हैं
और हमें विश्व बैंक से नया क़र्ज़ा मिल रहा है
इस क़र्ज़ से कई कारखाने लगाए जाएंगे
कारखानों से कई धंधे चलाए जाएंगे
उन धंधों से लाखों का लाभ होगा
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे
उन कारख़ानों से और उद्योग चलाए जाएंगे
उस लाभ से और कारख़ाने लगाए जाएंगे
इस तरह लाभ—दर—लाभ के बाद
जो शुभ लाभ होगा
उससे ग़रीबों के लिए घर बनाए जाएगे
उन पर उन्हीं की शान के झंडे लहराए जाएंगे
सभी ग़रीब एक आवाज़ से बोलें—
‘जय हिंद !’
ये हिंद साहब !
मगर इस देश का ग़रीब आदमी भी अजब तमाशा है
अपनी ही शान का इश्तहार पढ़ने से डरता है
और निरंतर निरक्षर होने का नाटक करता है
हाँ साहब, मैं ठीक कहता हूँ
अगर देश को ठीक दिशा में मोड़ना है तो
ग़रीब आदमी की इस नाटकीय मुद्रा को तोड़ना है
हमें उसे ज़बर्दस्ती इस दीवार के पास लाना है
और इस इश्तहार को पढ़वाना है।
आख़िर यह सरकारी इश्तहार है
और आजकल सरकारी इश्तहार
दीवार पर चिपका
कोई देवता या अवतार है।