"रोटी / हेमंत जोशी" के अवतरणों में अंतर
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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− | + | '''मार्क्स को याद करते हुए''' | |
याद रखें कि मेरा पेट भरा है | याद रखें कि मेरा पेट भरा है | ||
− | कहीं कोई बंजर नहीं, हर | + | कहीं कोई बंजर नहीं, हर तरफ़ हरा-भरा है |
पेट को हमेशा-हमेशा रखने के लिए भरा-पूरा | पेट को हमेशा-हमेशा रखने के लिए भरा-पूरा | ||
− | जंगल से शहरों और शहरों से महानगरों तक फिरा मैं मारा- | + | जंगल से शहरों और शहरों से महानगरों तक फिरा मैं मारा-मारा । |
जानवरों के शिकार से | जानवरों के शिकार से | ||
− | + | आदमख़ोरी से भी पेट भरा है । | |
जब दिखे बंजर मैदान | जब दिखे बंजर मैदान | ||
बदला उनको खलिहानों में | बदला उनको खलिहानों में | ||
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रोटी सूरज की छटाओं सी | रोटी सूरज की छटाओं सी | ||
अलग-अलग रंगों की | अलग-अलग रंगों की | ||
− | अलग-अलग स्वाद | + | अलग-अलग स्वाद सी । |
जबसे बनाई रोटी | जबसे बनाई रोटी | ||
पंक्ति 36: | पंक्ति 36: | ||
हो गई रोज़ी-रोटी | हो गई रोज़ी-रोटी | ||
हो गई मजबूरी इतनी | हो गई मजबूरी इतनी | ||
− | हाय पापी पेट क्या न | + | हाय पापी पेट क्या न कराए |
चोरी-चकारी, हत्याएँ, हमले, प्रपंच | चोरी-चकारी, हत्याएँ, हमले, प्रपंच | ||
जेब काटना, बाल काटना | जेब काटना, बाल काटना | ||
पंक्ति 46: | पंक्ति 46: | ||
कारें, बसें, रेल की सवारी | कारें, बसें, रेल की सवारी | ||
ढेरों नशे, ढेरों बीमारी | ढेरों नशे, ढेरों बीमारी | ||
− | ढेरों दवाएँ | + | ढेरों दवाएँ और महामारी |
विकास ही विकास चहुँ ओर | विकास ही विकास चहुँ ओर | ||
नए-नए हथियार, टैंक, युद्धपोत, विमान | नए-नए हथियार, टैंक, युद्धपोत, विमान | ||
पंक्ति 54: | पंक्ति 54: | ||
पता ही नहीं चला | पता ही नहीं चला | ||
कब सत्ता के दलालों ने | कब सत्ता के दलालों ने | ||
− | + | लोकतन्त्र के नाम पर रोटी की बहस को | |
बदल दिया विकास की बहस में | बदल दिया विकास की बहस में | ||
− | ज्ञान-विज्ञान- | + | ज्ञान-विज्ञान-अनुसन्धान और प्रबन्धन की बहस में । |
आज जब कोई भूखा | आज जब कोई भूखा | ||
पंक्ति 69: | पंक्ति 69: | ||
करते थे देवता | करते थे देवता | ||
पुष्प वर्षा करते हैं हम | पुष्प वर्षा करते हैं हम | ||
− | लोगों पर जो जाते हैं सावन में गंगाजल लेने | + | लोगों पर, जो जाते हैं सावन में गंगाजल लेने |
− | लोगों पर जो करते हैं सेवा तुम्हें महामारी से बचाने के | + | लोगों पर, जो करते हैं सेवा तुम्हें महामारी से बचाने के लिए । |
− | तुम्हें, मूर्ख तुम्हें बचाने के लिए | + | तुम्हें, मूर्ख ! तुम्हें बचाने के लिए |
और तुम्हें रोटी की पड़ी है | और तुम्हें रोटी की पड़ी है | ||
जब जीवन ही नहीं होगा | जब जीवन ही नहीं होगा | ||
पंक्ति 79: | पंक्ति 79: | ||
हम सुरक्षित रहेंगे | हम सुरक्षित रहेंगे | ||
और हमारे खज़ाने भरे रहेंगे | और हमारे खज़ाने भरे रहेंगे | ||
− | हम रोटी के बिना | + | हम रोटी के बिना ज़िन्दा रहते हैं |
वह और बात है कि हम जीते जी मरे हुए हैं | वह और बात है कि हम जीते जी मरे हुए हैं | ||
तू जिसे कहता है रोज़ी-रोटी | तू जिसे कहता है रोज़ी-रोटी | ||
पंक्ति 85: | पंक्ति 85: | ||
मिले तो सही | मिले तो सही | ||
न मिले तो खोटी है | न मिले तो खोटी है | ||
− | रोटी नहीं तेरी | + | रोटी नहीं तेरी क़िस्मत |
− | जा अब हमें पुष्प वर्षा करने दे। | + | जा, अब हमें पुष्प वर्षा करने दे। |
− | + | 05 मई 2020 | |
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01:51, 7 मई 2020 का अवतरण
मार्क्स को याद करते हुए
याद रखें कि मेरा पेट भरा है
कहीं कोई बंजर नहीं, हर तरफ़ हरा-भरा है
पेट को हमेशा-हमेशा रखने के लिए भरा-पूरा
जंगल से शहरों और शहरों से महानगरों तक फिरा मैं मारा-मारा ।
जानवरों के शिकार से
आदमख़ोरी से भी पेट भरा है ।
जब दिखे बंजर मैदान
बदला उनको खलिहानों में
और एक दिन ईजाद की रोटी
रोटी ज्वार की
रोटी बाजरे की
रोटी मडुवे की
रोटी मक्के की और गेहूँ की
रोटी गोल-गोल जैसे पृथ्वी
रोटी चाँद हो जैसे
रोटी सूरज की छटाओं सी
अलग-अलग रंगों की
अलग-अलग स्वाद सी ।
जबसे बनाई रोटी
पेट भरता नहीं केवल बोटी से
दीगर है बात कि राजे-रजवाड़े और उनके दरबारी
सदा से खाते रहे हैं छप्पन भोग
पर हमने तो रोटी ही खाई
रोटी की ही गाई
दो रोटी पेट पाल
दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ
पता नहीं प्रभु कौन है अब
रोटी पर इतना सोचा
नया अर्थ ही दे डाला
रोटी तब नहीं रह गई केवल रोटी
हो गई रोज़ी-रोटी
हो गई मजबूरी इतनी
हाय पापी पेट क्या न कराए
चोरी-चकारी, हत्याएँ, हमले, प्रपंच
जेब काटना, बाल काटना
पेड़ काटना, कुर्सी बनाना
कपड़े बनाना, पढ़ना-पढ़ाना
बहुत विकास किया भाई
नई-नई चीज़ें बनाईं
बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी
कारें, बसें, रेल की सवारी
ढेरों नशे, ढेरों बीमारी
ढेरों दवाएँ और महामारी
विकास ही विकास चहुँ ओर
नए-नए हथियार, टैंक, युद्धपोत, विमान
अमीरी और ग़रीबी
ऐय्याशी और मज़दूरी
खाए-अघाए लोग और भुखमरी
पता ही नहीं चला
कब सत्ता के दलालों ने
लोकतन्त्र के नाम पर रोटी की बहस को
बदल दिया विकास की बहस में
ज्ञान-विज्ञान-अनुसन्धान और प्रबन्धन की बहस में ।
आज जब कोई भूखा
यहाँ आदमी कहना ज़रूरी नहीं क्योंकि भूख
को स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में बाँटना ठीक नहीं
जब कोई भूखा कहता है आज
रोटी दो, मुझे रोटी दो
तो वो उससे पूछते हैं
जीने का मतलब क्या केवल रोटी होता है?
देखो, देखो हमने विमान बनाए हैं जिनसे हम पुष्प वर्षा करते हैं
ठीक उसी तरह जैसे धरा पर ईश्वर के अवतरण पर
करते थे देवता
पुष्प वर्षा करते हैं हम
लोगों पर, जो जाते हैं सावन में गंगाजल लेने
लोगों पर, जो करते हैं सेवा तुम्हें महामारी से बचाने के लिए ।
तुम्हें, मूर्ख ! तुम्हें बचाने के लिए
और तुम्हें रोटी की पड़ी है
जब जीवन ही नहीं होगा
तो रोटी का क्या करेगा
तू बचेगा भी या नहीं, पता नहीं
हम सुरक्षित रहेंगे
और हमारे खज़ाने भरे रहेंगे
हम रोटी के बिना ज़िन्दा रहते हैं
वह और बात है कि हम जीते जी मरे हुए हैं
तू जिसे कहता है रोज़ी-रोटी
वह रोज़ की रोटी है
मिले तो सही
न मिले तो खोटी है
रोटी नहीं तेरी क़िस्मत
जा, अब हमें पुष्प वर्षा करने दे।
05 मई 2020