"ग्रीनरूम / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजित कुमार |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार }} जह...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 93: | पंक्ति 93: | ||
मुड़ आया । | मुड़ आया । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | |||
+ | '''कलाकृति | ||
+ | |||
+ | |||
+ | चित्रों में अंकित | ||
+ | |||
+ | पथ,कानन, | ||
+ | |||
+ | सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन | ||
+ | |||
+ | लिपि में बँधे हुए, | ||
+ | |||
+ | शब्दों में वर्णित | ||
+ | |||
+ | मैंने देखे । | ||
+ | |||
+ | मुझे दिखा, मानो | ||
+ | |||
+ | नदियां यों तो बहती हैं | ||
+ | |||
+ | मैदानों में, दूर घाटियों में, | ||
+ | |||
+ | पर उनकी आत्मा रहतीहै | ||
+ | |||
+ | कागज़ पर अंकित चित्रों में । | ||
+ | |||
+ | मुझे लगा, मानो | ||
+ | |||
+ | दो क्षण रहनेवाली संध्या | ||
+ | |||
+ | बेशक ‘थी’ | ||
+ | |||
+ | और कभी आगे ‘होगी’, | ||
+ | |||
+ | किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ? | ||
+ | |||
+ | --बस कविताओं में । | ||
+ | |||
+ | : “दिवसावसान का समय | ||
+ | |||
+ | मेघमय आसमान से उत्तर रही है | ||
+ | |||
+ | संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “ | ||
+ | |||
+ | इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से | ||
+ | |||
+ | चित्रफलक पर रँगे हुए | ||
+ | |||
+ | वन,उत्पल, या आकाश | ||
+ | |||
+ | मुझे विह्लल कर देते थे । | ||
+ | |||
+ | बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए | ||
+ | |||
+ | उपवन, निर्झर, वातास | ||
+ | |||
+ | मुझे चंचल कर देते थे । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | इन सबमें रम जाता था | ||
+ | |||
+ | मैं । | ||
+ | |||
+ | इसीलिए तो | ||
+ | |||
+ | जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना— | ||
+ | |||
+ | कृति, अनुकृति— | ||
+ | |||
+ | वहाँ-वहाँ थम जाता था | ||
+ | |||
+ | मैं । | ||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | आत्मविस्मृति | ||
+ | |||
+ | पर्वतश्रेणी । | ||
+ | शीत हवाएँ । | ||
+ | कोहरे-पाले, | ||
+ | रूई के गाले-सी हिम | ||
+ | से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश । | ||
+ | श्वेत श्रृंग— | ||
+ | जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश । | ||
+ | |||
+ | उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर | ||
+ | बढती हुई एक कोई छाया, | ||
+ | ऊपर ही ऊपर को | ||
+ | चढती हुई एक कोई काया । | ||
+ | --पर्वतआरोही की काया । | ||
+ | |||
+ | वह पर्वतआरोही । | ||
+ | मैं हूँ जो | ||
+ | मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर | ||
+ | आया हूँ । | ||
+ | ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ । | ||
+ | (:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था, | ||
+ | उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।) | ||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | प्रकृति | ||
+ | उजड़ा, अन्तहीन पथ ।- | ||
+ | जिसपर कोई कभी नहीं भटका था । | ||
+ | मैं जब उसपर चला, | ||
+ | मुझे मालूम हुआ- | ||
+ | कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना, | ||
+ | गुलदानों में लगे गुलाबों से | ||
+ | अपने मन को छलना । | ||
+ | होगा । | ||
+ | कुछ तो होगा ही । | ||
+ | पर उन सबसे यह भिन्न । | ||
+ | यही इस वन-पथ पर | ||
+ | खोया-खोया रह, | ||
+ | बिना किसी उद्देश्य भटकना । | ||
+ | |||
+ | हर नन्हे जंगली पुष्प पर, | ||
+ | हर पंछी की विकल टेर पर | ||
+ | काफ़ी-काफ़ी देर | ||
+ | अटकना । | ||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | पुनरावृत्तियाँ | ||
+ | 1 | ||
+ | (रात के पिछले पहर में | ||
+ | स्वप्न टूटा । | ||
+ | दीप की लौ आखिरी-सा | ||
+ | उस समय था | ||
+ | भोर का तारा टिमकता । | ||
+ | चाँद की टूटी लहर में | ||
+ | तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …) | ||
+ | --बार-बार मैंने यह सोचा : | ||
+ | चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई । | ||
+ | एक लड़ाई लड़ी, खतम की | ||
+ | |||
+ | |||
+ | |||
+ | आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से | ||
+ | है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न । | ||
+ | तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | लेकिन पाता हूं- | ||
+ | अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष । | ||
+ | जो पहले था, वही आज हैं- | ||
+ | वही स्वप्न, वे ही आदर्श । | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | 2 | ||
+ | (हाय । कैसी थी कहानी । | ||
+ | अश्रु के भीगे कणों से, | ||
+ | प्यार के मीठे क्षणों से रची | ||
+ | वह कैसी कहानी । | ||
+ | कौन जाने कब सुनी थी, | ||
+ | कहाँ की थी, और किसकी ? | ||
+ | किन्तु अब भी बची | ||
+ | वह कैसी कहानी ?…) | ||
+ | |||
+ | -कितनी बार किया यह निश्चय : | ||
+ | अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ । | ||
+ | एक उम्र थी: नहीं रही । | ||
+ | अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे, | ||
+ | बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे । | ||
+ | लेकिन यह सब नहीं हुआ । | ||
+ | उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर, | ||
+ | ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा । | ||
+ | सहज बनूँ कैसे ? | ||
+ | उधेड़बुन यही शुरु से थी : | ||
+ | अब भी । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | 3 | ||
+ | (कितनी अकेली राह थी, | ||
+ | कैसा अकेला साथ था । | ||
+ | बेहद थके, डगमग क़दम । | ||
+ | लेकिन | ||
+ | कहाँ वह हाथ था— | ||
+ | जो बढे आगे, थाम ले । …) | ||
+ | |||
+ | --हुआ नहीं कोई भी अपना । | ||
+ | नहीं टूटता पर वह सपना । | ||
+ | बार-बार जो सोच रहे थे हम | ||
+ | कि अकेले ही रह लेंगे । | ||
+ | चलो, अकेले ही रह लेंगे । | ||
+ | |||
+ | बार-बार वह झूठा निकला : | ||
+ | एक न एक चाँद मुस्काया किया, | ||
+ | ज्वार बनकर मैं उमड़ा । | ||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | 4 | ||
+ | (राग का जादू हिरन पर छा गया । | ||
+ | वह कुलाँचें मारनेवाला | ||
+ | खिंचा-सा आ गया…) | ||
+ | |||
+ | --कई बार यह हुआ कि | ||
+ | अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं । | ||
+ | मोहक जो संगीत कहाता : मुझको | ||
+ | सिर्फ़ उबाता है । | ||
+ | गहराई से खींच, धरातल पर मुझको | ||
+ | ले आता है । | ||
+ | लेकिन जब भी, जब भी | ||
+ | काँपे थरथर-थरथर तार, | ||
+ | और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार | ||
+ | काँपने लगे होंठ हर बार, | ||
+ | धड़कने लगे प्राण के तार । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | 5 | ||
+ | (एक घर था | ||
+ | और उसके द्वार में ताला जड़ा था । | ||
+ | बन्द घर को कौन खोले । | ||
+ | स्तब्धता में कौन बोले । …) | ||
+ | |||
+ | --ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना | ||
+ | बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक | ||
+ | इनसे बाहर हटकर, उठकर | ||
+ | किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की | ||
+ | जो साध बड़ी थी, | ||
+ | उसके आगे एक अजब दीवार… | ||
+ | |||
+ | |||
+ | |||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | |||
+ | 1 | ||
+ | …एक बार का सोचा-समझा | ||
+ | बार-बार क्यों सच लगता ? | ||
+ | बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी | ||
+ | क्यों उसमें मन रमता । | ||
+ | आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ? | ||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | |||
+ | 2 | ||
+ | स्वप्न वहाँ हैं | ||
+ | और यहाँ पर परिणति है । | ||
+ | कृत्रिम उधर | ||
+ | और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ? | ||
+ | |||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | 3 | ||
+ | कौन कहाँ से आया | ||
+ | इसका तो कुछ भी आभास नहीं । | ||
+ | एक मुझीमें इतना सब कुछ था | ||
+ | यह भी विश्वास नहीं । | ||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | 4 | ||
+ | क्यों दुहराया तुमने उसको | ||
+ | कहो, उसे क्यों दुहराया ? | ||
+ | भूल नहीं पाये क्यों इसको ? | ||
+ | भूलो, अब तो भूलो सब । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | 5 | ||
+ | जो दीवारें थीं लोहे की, | ||
+ | वे दीवारें हैं लोहे की, | ||
+ | जैसी थीं वे, वैसी ही हैं । | ||
+ | -ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे । | ||
+ | पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा। | ||
+ | लेकिन | ||
+ | लौटे हुए व्यक्ति के लिये | ||
+ | शिखर तक जाना | ||
+ | उतना दुर्लभ नहीं रहा । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=अजित कुमार | ||
+ | |संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | |||
+ | आओ, हम फिर से जियें | ||
+ | |||
+ | आओ, हम फिर से जियें । | ||
+ | |||
+ | बहता-बहता मेघखंड जो | ||
+ | पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक | ||
+ | लौटा लायें उसे, | ||
+ | कहें : | ||
+ | ‘ओ, फिर से बहो । | ||
+ | मन, मन्थर, मृदु गति से … | ||
+ | शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत । | ||
+ | जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘ | ||
+ | |||
+ | और … | ||
+ | अपलक, अविचल | ||
+ | हम उसे निरखते रहें, पियें । | ||
+ | |||
+ | आओ, हम फिर से जियें । | ||
+ | |||
+ | 000 | ||
+ | |||
+ | (प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605) |
20:06, 9 सितम्बर 2008 का अवतरण
जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,
जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि
कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।
- जहाँ से दृश्य नए खुलते—
वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।
याद अब भी मुझको वह रात,
बहुत दिन पहले की यह बात…
- एक नाटक होते देखा :
- और अभिनय की हर रेखा
- मुझे रँगती-सी चली गई ।
- बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
- --चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
- सोचकर, उठा और चल दिया ।
अचानक वहीं पार्श्व में दिखा
द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।
झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-
ज्ञात था किसे ।
कि
श्री की होगी ऐसी राह ।
रँगे जाते थे चेहरे ।
आह ।
जान मैं गया,
जान मैं गया कि:
मुद्रा, अंग-भंगिमा,
गति, लय, भावावेग ,
हास उन्मुक्त, और उद्वेग—
सभी की रचना का यह केन्द्र ।
सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।
तभी से कुछ ऐसा हो गया
कि हर सज्जागृह के
दरवाज़े से ही
मैं वापस आ गया ।
जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,
जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,
वहां तक जाकर मैं थम गया ।
नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘
नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘
और
इस उलझी-सुलझी यात्रा का
था जहां आखिरी ठौर :
वहां तक पहुंचा-
मुड़ आया ।
कलाकृति
चित्रों में अंकित
पथ,कानन,
सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन
लिपि में बँधे हुए,
शब्दों में वर्णित
मैंने देखे ।
मुझे दिखा, मानो
नदियां यों तो बहती हैं
मैदानों में, दूर घाटियों में,
पर उनकी आत्मा रहतीहै
कागज़ पर अंकित चित्रों में ।
मुझे लगा, मानो
दो क्षण रहनेवाली संध्या
बेशक ‘थी’
और कभी आगे ‘होगी’,
किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ?
--बस कविताओं में ।
- “दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उत्तर रही है
संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “
इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से
चित्रफलक पर रँगे हुए
वन,उत्पल, या आकाश
मुझे विह्लल कर देते थे ।
बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए
उपवन, निर्झर, वातास
मुझे चंचल कर देते थे ।
इन सबमें रम जाता था
मैं ।
इसीलिए तो
जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना—
कृति, अनुकृति—
वहाँ-वहाँ थम जाता था
मैं ।
आत्मविस्मृति
पर्वतश्रेणी । शीत हवाएँ । कोहरे-पाले, रूई के गाले-सी हिम से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश । श्वेत श्रृंग— जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।
उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर बढती हुई एक कोई छाया, ऊपर ही ऊपर को चढती हुई एक कोई काया । --पर्वतआरोही की काया ।
वह पर्वतआरोही । मैं हूँ जो मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर आया हूँ । ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ । (:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था, उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)
प्रकृति उजड़ा, अन्तहीन पथ ।- जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।
मैं जब उसपर चला,
मुझे मालूम हुआ- कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना, गुलदानों में लगे गुलाबों से अपने मन को छलना । होगा । कुछ तो होगा ही । पर उन सबसे यह भिन्न । यही इस वन-पथ पर खोया-खोया रह, बिना किसी उद्देश्य भटकना ।
हर नन्हे जंगली पुष्प पर, हर पंछी की विकल टेर पर काफ़ी-काफ़ी देर अटकना ।
पुनरावृत्तियाँ 1 (रात के पिछले पहर में स्वप्न टूटा । दीप की लौ आखिरी-सा उस समय था भोर का तारा टिमकता । चाँद की टूटी लहर में तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …) --बार-बार मैंने यह सोचा : चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।
एक लड़ाई लड़ी, खतम की
आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
लेकिन पाता हूं-
अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
जो पहले था, वही आज हैं-
वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।
2 (हाय । कैसी थी कहानी । अश्रु के भीगे कणों से, प्यार के मीठे क्षणों से रची वह कैसी कहानी । कौन जाने कब सुनी थी, कहाँ की थी, और किसकी ? किन्तु अब भी बची वह कैसी कहानी ?…)
-कितनी बार किया यह निश्चय : अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ । एक उम्र थी: नहीं रही । अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे, बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।
लेकिन यह सब नहीं हुआ । उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर, ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा । सहज बनूँ कैसे ? उधेड़बुन यही शुरु से थी : अब भी ।
3 (कितनी अकेली राह थी, कैसा अकेला साथ था । बेहद थके, डगमग क़दम । लेकिन कहाँ वह हाथ था— जो बढे आगे, थाम ले । …)
--हुआ नहीं कोई भी अपना । नहीं टूटता पर वह सपना । बार-बार जो सोच रहे थे हम कि अकेले ही रह लेंगे । चलो, अकेले ही रह लेंगे ।
बार-बार वह झूठा निकला : एक न एक चाँद मुस्काया किया, ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।
4 (राग का जादू हिरन पर छा गया । वह कुलाँचें मारनेवाला खिंचा-सा आ गया…)
--कई बार यह हुआ कि अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं । मोहक जो संगीत कहाता : मुझको
सिर्फ़ उबाता है ।
गहराई से खींच, धरातल पर मुझको
ले आता है । लेकिन जब भी, जब भी काँपे थरथर-थरथर तार, और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार
काँपने लगे होंठ हर बार, धड़कने लगे प्राण के तार ।
5 (एक घर था और उसके द्वार में ताला जड़ा था । बन्द घर को कौन खोले । स्तब्धता में कौन बोले । …)
--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक
इनसे बाहर हटकर, उठकर किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की जो साध बड़ी थी, उसके आगे एक अजब दीवार…
1 …एक बार का सोचा-समझा बार-बार क्यों सच लगता ? बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी क्यों उसमें मन रमता । आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?
2 स्वप्न वहाँ हैं और यहाँ पर परिणति है । कृत्रिम उधर और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?
3 कौन कहाँ से आया इसका तो कुछ भी आभास नहीं । एक मुझीमें इतना सब कुछ था यह भी विश्वास नहीं ।
4 क्यों दुहराया तुमने उसको कहो, उसे क्यों दुहराया ? भूल नहीं पाये क्यों इसको ? भूलो, अब तो भूलो सब ।
5 जो दीवारें थीं लोहे की, वे दीवारें हैं लोहे की, जैसी थीं वे, वैसी ही हैं । -ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे । पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा। लेकिन लौटे हुए व्यक्ति के लिये शिखर तक जाना उतना दुर्लभ नहीं रहा ।
आओ, हम फिर से जियें
आओ, हम फिर से जियें ।
बहता-बहता मेघखंड जो पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक लौटा लायें उसे, कहें : ‘ओ, फिर से बहो । मन, मन्थर, मृदु गति से … शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत । जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘
और … अपलक, अविचल हम उसे निरखते रहें, पियें ।
आओ, हम फिर से जियें ।
000
(प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605)