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'''कलाकृति
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चित्रों में अंकित
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पथ,कानन,
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सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन
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लिपि में बँधे हुए,
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शब्दों में वर्णित
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मैंने देखे ।
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मुझे दिखा, मानो
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नदियां यों तो बहती हैं
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मैदानों में, दूर घाटियों में,
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पर उनकी आत्मा रहतीहै
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कागज़ पर अंकित चित्रों में ।
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मुझे लगा, मानो
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दो क्षण रहनेवाली संध्या
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बेशक ‘थी’
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और कभी आगे ‘होगी’,
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किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ?
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--बस कविताओं में ।
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: “दिवसावसान का समय
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मेघमय आसमान से उत्तर रही है
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संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “
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इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से
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चित्रफलक पर रँगे हुए
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वन,उत्पल, या आकाश
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मुझे विह्लल कर देते थे ।
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बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए
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उपवन, निर्झर, वातास
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मुझे चंचल कर देते थे ।
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इन सबमें रम जाता था
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मैं ।
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इसीलिए तो
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जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना—
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कृति, अनुकृति—
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वहाँ-वहाँ थम जाता था
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मैं ।
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आत्मविस्मृति
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पर्वतश्रेणी ।
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शीत हवाएँ ।
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कोहरे-पाले,
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रूई के गाले-सी हिम
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से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश ।
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श्वेत श्रृंग—
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जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।
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उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर
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बढती हुई एक कोई छाया,
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ऊपर ही ऊपर को
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चढती हुई एक कोई काया ।
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--पर्वतआरोही की काया ।
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वह पर्वतआरोही ।
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मैं हूँ जो
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मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर
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आया हूँ ।
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ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ ।
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(:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था,
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उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)
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प्रकृति
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उजड़ा, अन्तहीन पथ ।-
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जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।
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मैं जब उसपर चला,
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मुझे मालूम हुआ-
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कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना,
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गुलदानों में लगे गुलाबों से
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अपने मन को छलना ।
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होगा ।
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कुछ तो होगा ही ।
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पर उन सबसे यह भिन्न ।
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यही इस वन-पथ पर
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खोया-खोया रह,
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बिना किसी उद्देश्य भटकना ।
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हर नन्हे जंगली पुष्प पर,
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हर पंछी की विकल टेर पर
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काफ़ी-काफ़ी देर
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अटकना ।
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पुनरावृत्तियाँ
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1
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(रात के पिछले पहर में
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स्वप्न टूटा ।
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दीप की लौ आखिरी-सा
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उस समय था
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भोर का तारा टिमकता ।
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चाँद की टूटी लहर में
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तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …)
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--बार-बार मैंने यह सोचा :
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चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।
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    एक लड़ाई लड़ी, खतम की
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आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
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है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
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तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
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लेकिन पाता हूं-
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अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
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जो पहले था, वही आज हैं-
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वही स्वप्न, वे ही आदर्श  ।
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(हाय । कैसी थी कहानी ।
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अश्रु के भीगे कणों से,
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प्यार के मीठे क्षणों से रची
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वह कैसी कहानी ।
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कौन जाने कब सुनी थी,
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कहाँ की थी, और किसकी ?
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किन्तु अब भी बची
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वह कैसी कहानी ?…)
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-कितनी बार किया यह निश्चय :
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अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ ।
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एक उम्र थी: नहीं रही ।
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अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे,
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बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।
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        लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
 +
        उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
 +
        ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
 +
          सहज बनूँ कैसे ?
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          उधेड़बुन यही शुरु से थी :
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          अब भी ।
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(कितनी अकेली राह थी,
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कैसा अकेला साथ था ।
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बेहद थके, डगमग क़दम ।
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लेकिन
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कहाँ वह हाथ था—
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जो बढे आगे, थाम ले । …)
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--हुआ नहीं कोई भी अपना ।
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नहीं टूटता पर वह सपना ।
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बार-बार जो सोच रहे थे हम
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कि अकेले ही रह लेंगे ।
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चलो, अकेले ही रह लेंगे ।
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बार-बार वह झूठा निकला :
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एक न एक चाँद मुस्काया किया,
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ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।
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(राग का जादू हिरन पर छा गया ।
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वह कुलाँचें मारनेवाला
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खिंचा-सा आ गया…)
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--कई बार यह हुआ कि
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अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं ।
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मोहक जो संगीत कहाता : मुझको
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  सिर्फ़ उबाता है ।
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गहराई से खींच, धरातल पर मुझको
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    ले आता है ।
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    लेकिन जब भी, जब भी
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    काँपे थरथर-थरथर तार,
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    और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार
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काँपने लगे होंठ हर बार,
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धड़कने लगे प्राण के तार ।
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(एक घर था
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और उसके द्वार में ताला जड़ा था ।
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बन्द घर को कौन खोले ।
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स्तब्धता में कौन बोले । …)
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--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना
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बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक
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    इनसे बाहर हटकर, उठकर
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    किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
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    जो साध बड़ी थी,
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    उसके आगे एक अजब दीवार…
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…एक बार का सोचा-समझा
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बार-बार क्यों सच लगता ?
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बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी
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क्यों उसमें मन रमता ।
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आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?
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स्वप्न वहाँ हैं
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और यहाँ पर परिणति है ।
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कृत्रिम उधर
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और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?
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कौन कहाँ से आया
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इसका तो कुछ भी आभास नहीं ।
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एक मुझीमें इतना सब कुछ था
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यह भी विश्वास नहीं ।
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क्यों दुहराया तुमने उसको
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कहो, उसे क्यों दुहराया ?
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भूल नहीं पाये क्यों इसको ?
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भूलो, अब तो भूलो सब ।
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जो दीवारें थीं लोहे की,
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वे दीवारें हैं लोहे की,
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जैसी थीं वे, वैसी ही हैं ।
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-ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे ।
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पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा।
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लेकिन
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लौटे हुए व्यक्ति के लिये
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शिखर तक जाना
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उतना दुर्लभ नहीं रहा ।
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आओ, हम फिर से जियें
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आओ, हम फिर से जियें ।
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बहता-बहता मेघखंड जो
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पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक
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लौटा  लायें उसे,
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कहें :
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‘ओ, फिर से बहो ।
 +
मन, मन्थर, मृदु गति से …
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शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत ।
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जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘
 +
 +
और …
 +
अपलक, अविचल
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हम उसे निरखते रहें, पियें ।
 +
 +
आओ, हम फिर से जियें ।
 +
 +
        000
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 +
(प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605)

20:06, 9 सितम्बर 2008 का अवतरण

जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,

जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि

कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।

जहाँ से दृश्य नए खुलते—

वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।


याद अब भी मुझको वह रात,

बहुत दिन पहले की यह बात…

एक नाटक होते देखा :
और अभिनय की हर रेखा
मुझे रँगती-सी चली गई ।
बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
सोचकर, उठा और चल दिया ।


अचानक वहीं पार्श्व में दिखा

द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।

झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-

ज्ञात था किसे ।

कि

श्री की होगी ऐसी राह ।

रँगे जाते थे चेहरे ।

आह ।

जान मैं गया,

जान मैं गया कि:

मुद्रा, अंग-भंगिमा,

गति, लय, भावावेग ,

हास उन्मुक्त, और उद्वेग—

सभी की रचना का यह केन्द्र ।

सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।


तभी से कुछ ऐसा हो गया

कि हर सज्जागृह के

दरवाज़े से ही

मैं वापस आ गया ।


जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,

जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,

वहां तक जाकर मैं थम गया ।


नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘

नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘

और

इस उलझी-सुलझी यात्रा का

था जहां आखिरी ठौर :

वहां तक पहुंचा-

मुड़ आया ।


कलाकृति


चित्रों में अंकित

पथ,कानन,

सरिताएं, सागर, भू, नभ, घन

लिपि में बँधे हुए,

शब्दों में वर्णित

मैंने देखे ।

मुझे दिखा, मानो

नदियां यों तो बहती हैं

मैदानों में, दूर घाटियों में,

पर उनकी आत्मा रहतीहै

कागज़ पर अंकित चित्रों में ।

मुझे लगा, मानो

दो क्षण रहनेवाली संध्या

बेशक ‘थी’

और कभी आगे ‘होगी’,

किन्तु अमरता और मधुरिमा उसकी ?

--बस कविताओं में ।

“दिवसावसान का समय

मेघमय आसमान से उत्तर रही है

संध्या-सुंन्दरी परी-सी… “

इसीलिए वे हरे, लाल,नीले रंगों से

चित्रफलक पर रँगे हुए

वन,उत्पल, या आकाश

मुझे विह्लल कर देते थे ।

बन्धु । वे सरल-तरल-मंजुल शैली में कहे गए

उपवन, निर्झर, वातास

मुझे चंचल कर देते थे ।


इन सबमें रम जाता था

मैं ।

इसीलिए तो

जहाँ-जहाँ भी दीख पड़ी रचना—

कृति, अनुकृति—

वहाँ-वहाँ थम जाता था

मैं ।

आत्मविस्मृति

पर्वतश्रेणी । शीत हवाएँ । कोहरे-पाले, रूई के गाले-सी हिम से ढँका, मुँदा वह पर्वत-देश । श्वेत श्रृंग— जिनको आकांक्षा छूती धर जलधर का वेश ।

उन्हीं उच्च लक्ष्यों पर बढती हुई एक कोई छाया, ऊपर ही ऊपर को चढती हुई एक कोई काया । --पर्वतआरोही की काया ।

वह पर्वतआरोही । मैं हूँ जो मैदान, नदी, टीले, कछार, घाटियाँ पारकर आया हूँ । ऊँचे पर्वत की चोटी छूने को आया हूँ । (:आर्टगैलरी में पर्वत का चित्र देखकर आया था, उस क्षण मेरे मन में ऐसा अद्भुत भाव समाया था ।)

प्रकृति उजड़ा, अन्तहीन पथ ।- जिसपर कोई कभी नहीं भटका था ।

मैं जब उसपर चला,

मुझे मालूम हुआ- कुशनों-क़ालीनों के फूलों पर चलना, गुलदानों में लगे गुलाबों से अपने मन को छलना । होगा । कुछ तो होगा ही । पर उन सबसे यह भिन्न । यही इस वन-पथ पर खोया-खोया रह, बिना किसी उद्देश्य भटकना ।

हर नन्हे जंगली पुष्प पर, हर पंछी की विकल टेर पर काफ़ी-काफ़ी देर अटकना ।

पुनरावृत्तियाँ 1 (रात के पिछले पहर में स्वप्न टूटा । दीप की लौ आखिरी-सा उस समय था भोर का तारा टिमकता । चाँद की टूटी लहर में तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …) --बार-बार मैंने यह सोचा : चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।

   एक लड़ाई लड़ी, खतम की


आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न । तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।


लेकिन पाता हूं- अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष । जो पहले था, वही आज हैं- वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।

2 (हाय । कैसी थी कहानी । अश्रु के भीगे कणों से, प्यार के मीठे क्षणों से रची वह कैसी कहानी । कौन जाने कब सुनी थी, कहाँ की थी, और किसकी ? किन्तु अब भी बची वह कैसी कहानी ?…)

-कितनी बार किया यह निश्चय : अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ । एक उम्र थी: नहीं रही । अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे, बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।

        लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
        उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
        ‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
         सहज बनूँ कैसे ?
          उधेड़बुन यही शुरु से थी :
          अब भी ।


3 (कितनी अकेली राह थी, कैसा अकेला साथ था । बेहद थके, डगमग क़दम । लेकिन कहाँ वह हाथ था— जो बढे आगे, थाम ले । …)

--हुआ नहीं कोई भी अपना । नहीं टूटता पर वह सपना । बार-बार जो सोच रहे थे हम कि अकेले ही रह लेंगे । चलो, अकेले ही रह लेंगे ।

बार-बार वह झूठा निकला : एक न एक चाँद मुस्काया किया, ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।

4 (राग का जादू हिरन पर छा गया । वह कुलाँचें मारनेवाला खिंचा-सा आ गया…)

--कई बार यह हुआ कि अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं । मोहक जो संगीत कहाता : मुझको

  सिर्फ़ उबाता है ।

गहराई से खींच, धरातल पर मुझको

   ले आता है ।
   लेकिन जब भी, जब भी
   काँपे थरथर-थरथर तार,
   और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार

काँपने लगे होंठ हर बार, धड़कने लगे प्राण के तार ।


5 (एक घर था और उसके द्वार में ताला जड़ा था । बन्द घर को कौन खोले । स्तब्धता में कौन बोले । …)

--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक

   इनसे बाहर हटकर, उठकर
   किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
   जो साध बड़ी थी,
   उसके आगे एक अजब दीवार…



1 …एक बार का सोचा-समझा बार-बार क्यों सच लगता ? बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी क्यों उसमें मन रमता । आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?

2 स्वप्न वहाँ हैं और यहाँ पर परिणति है । कृत्रिम उधर और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?


3 कौन कहाँ से आया इसका तो कुछ भी आभास नहीं । एक मुझीमें इतना सब कुछ था यह भी विश्वास नहीं ।

4 क्यों दुहराया तुमने उसको कहो, उसे क्यों दुहराया ? भूल नहीं पाये क्यों इसको ? भूलो, अब तो भूलो सब ।


5 जो दीवारें थीं लोहे की, वे दीवारें हैं लोहे की, जैसी थीं वे, वैसी ही हैं । -ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे । पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा। लेकिन लौटे हुए व्यक्ति के लिये शिखर तक जाना उतना दुर्लभ नहीं रहा ।


आओ, हम फिर से जियें

आओ, हम फिर से जियें ।

बहता-बहता मेघखंड जो पहुँच गया है वहाँ क्षितिज तक लौटा लायें उसे, कहें : ‘ओ, फिर से बहो । मन, मन्थर, मृदु गति से … शोभावाही मेघ, रसीले मेघ, दूत । जो कथा कही थी, फिर से कहो ।‘

और … अपलक, अविचल हम उसे निरखते रहें, पियें ।

आओ, हम फिर से जियें ।

        000

(प्रकाशन विषयक सूचना –वर्ष 1958, प्रकाशक –राजकमल,दिल्ली,पटना आदि, पृष्ठ-80,आकार डिमाई,मूल्य-तीन रुपये, कापीराइट,1958,अजितकुमार,युगमन्दिर, उन्नाव, वर्तमान पता- 166, वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034, फ़ोन-27314369, मो0 9811225605)