भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जाल फेंक रे मछेरे / बुद्धिनाथ मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बुद्धिनाथ मिश्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
− | {{ | + | {{KKCatNavgeet}} |
− | + | ||
<poem> | <poem> | ||
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे | एक बार और जाल फेंक रे मछेरे |
14:39, 11 जून 2020 का अवतरण
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो।
उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो।
गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब बाँध रही छाँह हो।
कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है
यों ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो।