"अलग होना / बरीस पास्तेरनाक" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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तूफ़ान के बाद लहरें | तूफ़ान के बाद लहरें | ||
जैसे डुबो देती हैं बाँस को, | जैसे डुबो देती हैं बाँस को, | ||
− | उसकी | + | उसकी आत्मा की गहराई में |
चली गई हैं उसकी सारी छवियाँ | चली गई हैं उसकी सारी छवियाँ | ||
पंक्ति 48: | पंक्ति 48: | ||
और जब उसका यह चले जाना | और जब उसका यह चले जाना | ||
− | सम्भव है एक | + | सम्भव है एक ज़बरदस्ती हो |
चबा डालेगा यह अलगाव | चबा डालेगा यह अलगाव | ||
उसकी हड्डियों को अवसाद समेत । | उसकी हड्डियों को अवसाद समेत । | ||
पंक्ति 55: | पंक्ति 55: | ||
उस स्त्री ने जाने से पहले | उस स्त्री ने जाने से पहले | ||
उलट-पलट कर फेंक दिया है | उलट-पलट कर फेंक दिया है | ||
− | अलमारी की हर चीज़ | + | अलमारी की हर चीज़ को । |
वह टहलता है इधर-उधर | वह टहलता है इधर-उधर | ||
− | + | अन्धेरा होने से पहले | |
बिखरे चीथड़ों, कपड़ों के नमूनों को | बिखरे चीथड़ों, कपड़ों के नमूनों को | ||
− | समेट कर रख देता है अलमारी | + | समेट कर रख देता है अलमारी में । |
अधसिले कपड़े पर रखी सुई | अधसिले कपड़े पर रखी सुई | ||
− | चुभ जाती है उसकी | + | चुभ जाती है उसकी अँगुली में |
उस क्षण उसे दिखती है वह पूरी-की-पूरी | उस क्षण उसे दिखती है वह पूरी-की-पूरी | ||
− | और धीरे-से रो देता है | + | और धीरे-से रो देता है वह । |
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16:17, 18 जुलाई 2022 का अवतरण
चौखट पर से देखता है आदमी
पहचान नहीं पाता घर को
उस स्त्री का जाना जैसे गायब हो जाना था
सब जगह बरबादी के निशान छोड़कर ।
अस्त-व्यस्त दिखता है सारा कमरा,
कितनी क्षति हुई
देख नहीं पा रहा वह आदमी
सिरदर्द और आंसुओं के कारण ।
सुबह से कानों में गूँज रहा कुछ शोर-सा
वह होश में है या देख रहा है सपना ?
क्यों आ रहे हैं विचार
हर क्षण समुद्र के बारे में ।
जब खिड़कियों पर लगे आले के बीच से
दिखाई नहीं पड़ता ईश्वर का संसार
दूर तक फैला अवसाद
दिखता हैं समुद्र की लम्बी निर्जनता की तरह।
प्रिय लगती थी वह
इतनी कि प्रिय लगती थी उसकी हर बात
जैसे प्रिय लगती हैं
समुद्र को अपनी लहरें, अपना तट ।
तूफ़ान के बाद लहरें
जैसे डुबो देती हैं बाँस को,
उसकी आत्मा की गहराई में
चली गई हैं उसकी सारी छवियाँ
यातना भरे जीवन के उन दिनों में
जो विचार से भी परे थे
नियति के अथाह से
लहरें उसे उठा लाई थीं पास ।
असंख्य बाधाओं के बीच
ख़तरों से बचते हुए
लहरें उसे ऊपर उठाती रहीं, उठाती रहीं
और अन्तत: ले आईं उसे एकदम पास ।
और जब उसका यह चले जाना
सम्भव है एक ज़बरदस्ती हो
चबा डालेगा यह अलगाव
उसकी हड्डियों को अवसाद समेत ।
और आदमी देखता है चारों तरफ़
उस स्त्री ने जाने से पहले
उलट-पलट कर फेंक दिया है
अलमारी की हर चीज़ को ।
वह टहलता है इधर-उधर
अन्धेरा होने से पहले
बिखरे चीथड़ों, कपड़ों के नमूनों को
समेट कर रख देता है अलमारी में ।
अधसिले कपड़े पर रखी सुई
चुभ जाती है उसकी अँगुली में
उस क्षण उसे दिखती है वह पूरी-की-पूरी
और धीरे-से रो देता है वह ।