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"सैनिकों की बेटियाँ / अनीता सैनी" के अवतरणों में अंतर

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पलक झपकते ही बड़ी हो जाती हैं।
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पिता शब्द में रंग भरतीं
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माँ को सँवारतीं
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स्वप्न के बेल-बूटों को स्वतः सींचतीं
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टूटने और रूठने से परे वे
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न जाने कब सैनिक बन जाती हैं।
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बादलों की टोह लेतीं
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धूप-छाँव के संगम में पलीं वल्लरियाँ
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रश्मियों-सी निखर जाती हैं।
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हृदय-भीत पर मिट्टी का लेप लगातीं
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न जाने कब घर का स्तंभ बन जाती हैं।
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जटायु हूँ मैं
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कह काल के रावण को डरातीं
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छोटे जूतों में बढ़ते पैरों को छिपातीं
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माँ की ढाल बनते-बनते
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न जाने कब पिता की परछाई बन जाती हैं।
  
 
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00:29, 7 जुलाई 2023 के समय का अवतरण


सैनिकों की बेटियाँ
पिता के स्नेह की परिभाषा
माँ के शब्दों में पढ़ती हैं।
भावों से पिता शब्द तराशतीं
 पलक झपकते ही बड़ी हो जाती हैं।
पिता शब्द में रंग भरतीं
माँ को सँवारतीं
स्वप्न के बेल-बूटों को स्वतः सींचतीं
टूटने और रूठने से परे वे
न जाने कब सैनिक बन जाती हैं।
बादलों की टोह लेतीं
धूप-छाँव के संगम में पलीं वल्लरियाँ
रश्मियों-सी निखर जाती हैं।
हृदय-भीत पर मिट्टी का लेप लगातीं
न जाने कब घर का स्तंभ बन जाती हैं।
जटायु हूँ मैं
कह काल के रावण को डरातीं
छोटे जूतों में बढ़ते पैरों को छिपातीं
माँ की ढाल बनते-बनते
न जाने कब पिता की परछाई बन जाती हैं।