"जीवन का मर्म / पूनम चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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+ | जैसे सृष्टि | ||
+ | अपनी थकी हुई बाहें | ||
+ | धरती पर रखकर | ||
+ | सो गई हो। | ||
+ | मैंने अपने को सुना— | ||
+ | उत्तर बाहर नहीं थे, | ||
+ | प्रश्न भीतर नहीं थे। | ||
+ | केवल मौन था— | ||
+ | जिसमें समाई थी | ||
+ | जीवन की सम्पूर्ण पीड़ा और करुणा। | ||
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+ | मैंने देखा— | ||
+ | एक पत्ता टूटा, | ||
+ | धरती ने उसे थाम लिया | ||
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+ | यह प्रेम है— | ||
+ | अनाम, निःशब्द। | ||
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+ | एक दिया जल रहा था— | ||
+ | बिना माँगे प्रकाश देता हुआ, | ||
+ | अंदर और बाहर। | ||
+ | यही चेतना है— | ||
+ | जो अंधकार में भी | ||
+ | अपनी लौ से मार्ग बनाती है। | ||
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+ | भीतर का एक पथ— | ||
+ | जंगल-सा गहन, | ||
+ | पर उसमें मेरे पग | ||
+ | स्वयं चलने लगे। | ||
+ | जैसे वह मार्ग | ||
+ | मनुष्य के लिए ही बना हो। | ||
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+ | वहाँ ईश्वर नहीं था, | ||
+ | न कोई मूर्ति, न कोई नाम— | ||
+ | केवल एक अनुभूति थी | ||
+ | जो कहती थी— | ||
+ | “मनुष्य, | ||
+ | तू ही मेरी सर्वश्रेष्ठ रचना है।” | ||
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+ | आस्तिक! | ||
+ | तो मौन में बैठो, | ||
+ | अपने हृदय की धड़कन सुनो। | ||
+ | नास्तिक! | ||
+ | तो किसी विवश का हाथ थाम लो, | ||
+ | किसी अनाथ के आँसू पोंछ दो— | ||
+ | दोनों ही जगह | ||
+ | ईश्वर मनुष्य की गरिमा में है। | ||
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+ | प्रकृति— | ||
+ | नदी की तरह बहती है, | ||
+ | वृक्ष की तरह झुकती है, | ||
+ | पर्वत की तरह खड़ी है। | ||
+ | वह अपने धर्म में पूर्ण है। | ||
+ | तुम भी वैसे ही बनो— | ||
+ | न कुछ साबित करो, | ||
+ | न कहीं और ढूँढो। | ||
+ | जो चाहिए | ||
+ | वह तुम्हारे निकट है। | ||
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+ | मुक्ति कोई मंज़िल नहीं— | ||
+ | यह तो वही क्षण है | ||
+ | जब तुम स्वयं को | ||
+ | निर्व्याज छू लेते हो। | ||
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+ | शब्दों में नहीं मिलता। | ||
+ | वह है— | ||
+ | एक साँस में, | ||
+ | एक करुण मुस्कान में, | ||
+ | या उस पल में | ||
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+ | अधूरे नहीं लगते। | ||
+ | अंततः | ||
+ | धर्म यही है— | ||
+ | जो तुम हो, उसे पूरी तरह स्वीकारो। | ||
+ | दूसरों के लिए जियो, | ||
+ | अपना प्रेम फैलाओ। | ||
+ | और देखो— | ||
+ | तुम्हारा अपना प्रकाश | ||
+ | स्वयं लौट आता है, | ||
+ | आत्मिक, शुद्ध, अनंत | ||
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08:13, 17 अगस्त 2025 के समय का अवतरण
एक दिन
चारों ओर शांति थी—
न कोलाहल,
न व्याकुलता।
जैसे सृष्टि
अपनी थकी हुई बाहें
धरती पर रखकर
सो गई हो।
मैंने अपने को सुना—
उत्तर बाहर नहीं थे,
प्रश्न भीतर नहीं थे।
केवल मौन था—
जिसमें समाई थी
जीवन की सम्पूर्ण पीड़ा और करुणा।
मैंने देखा—
एक पत्ता टूटा,
धरती ने उसे थाम लिया
यह प्रेम है—
अनाम, निःशब्द।
एक दिया जल रहा था—
बिना माँगे प्रकाश देता हुआ,
अंदर और बाहर।
यही चेतना है—
जो अंधकार में भी
अपनी लौ से मार्ग बनाती है।
भीतर का एक पथ—
जंगल-सा गहन,
पर उसमें मेरे पग
स्वयं चलने लगे।
जैसे वह मार्ग
मनुष्य के लिए ही बना हो।
वहाँ ईश्वर नहीं था,
न कोई मूर्ति, न कोई नाम—
केवल एक अनुभूति थी
जो कहती थी—
“मनुष्य,
तू ही मेरी सर्वश्रेष्ठ रचना है।”
आस्तिक!
तो मौन में बैठो,
अपने हृदय की धड़कन सुनो।
नास्तिक!
तो किसी विवश का हाथ थाम लो,
किसी अनाथ के आँसू पोंछ दो—
दोनों ही जगह
ईश्वर मनुष्य की गरिमा में है।
प्रकृति—
नदी की तरह बहती है,
वृक्ष की तरह झुकती है,
पर्वत की तरह खड़ी है।
वह अपने धर्म में पूर्ण है।
तुम भी वैसे ही बनो—
न कुछ साबित करो,
न कहीं और ढूँढो।
जो चाहिए
वह तुम्हारे निकट है।
मुक्ति कोई मंज़िल नहीं—
यह तो वही क्षण है
जब तुम स्वयं को
निर्व्याज छू लेते हो।
सत्य—
शब्दों में नहीं मिलता।
वह है—
एक साँस में,
एक करुण मुस्कान में,
या उस पल में
जब तुम अकेले होकर भी
अधूरे नहीं लगते।
अंततः
धर्म यही है—
जो तुम हो, उसे पूरी तरह स्वीकारो।
दूसरों के लिए जियो,
अपना प्रेम फैलाओ।
और देखो—
तुम्हारा अपना प्रकाश
स्वयं लौट आता है,
आत्मिक, शुद्ध, अनंत
-0-