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+ | वक़्त की कीमत जानी | ||
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+ | खत्म हो चुकी थी | ||
+ | नीलामी | ||
+ | हम जैसों ने | ||
+ | खरीदे | ||
+ | जमीन के टुकड़े | ||
+ | इक्ट्ठा किया धन | ||
+ | देख सके न | ||
+ | जरा आँख उठा | ||
+ | विस्तरित नभ | ||
+ | लपकती तड़ित | ||
+ | घनघोर गरजते घन | ||
+ | रहे पीते | ||
+ | धुएं से भरी हवा | ||
+ | कभी | ||
+ | देखा नहीं | ||
+ | बाजू मे बसा | ||
+ | हरित वन | ||
+ | पत्नी ने लगाए | ||
+ | गमलों में कैक्टस | ||
+ | उन पर भी | ||
+ | डाली उचटती सी नज़र | ||
+ | खा गया | ||
+ | हमें तो यारो | ||
+ | दावानल सा बढ़ता | ||
+ | अपना नगर | ||
+ | नगर का | ||
+ | भी, क्या दोष | ||
+ | उसे भी तो हमने गढ़ा | ||
+ | देखते रहे | ||
+ | औरों के हाथ | ||
+ | बताते रहे भविष्य | ||
+ | पर | ||
+ | अपनी | ||
+ | हथेली को | ||
+ | कभी नहीं पढ़ा | ||
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09:04, 16 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना
पर
इसके लिये
वक़्त कहां ?
वक़्त तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में
और अधिक-और अधिक
संचय की आस में
बीत गये
बचपन जवानी
जीवन के अन्तिम दिनों में
हमने
वक़्त की कीमत जानी
तब तक तो
खत्म हो चुकी थी
नीलामी
हम जैसों ने
खरीदे
जमीन के टुकड़े
इक्ट्ठा किया धन
देख सके न
जरा आँख उठा
विस्तरित नभ
लपकती तड़ित
घनघोर गरजते घन
रहे पीते
धुएं से भरी हवा
कभी
देखा नहीं
बाजू मे बसा
हरित वन
पत्नी ने लगाए
गमलों में कैक्टस
उन पर भी
डाली उचटती सी नज़र
खा गया
हमें तो यारो
दावानल सा बढ़ता
अपना नगर
नगर का
भी, क्या दोष
उसे भी तो हमने गढ़ा
देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर
अपनी
हथेली को
कभी नहीं पढ़ा