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"आईना-द्रोह (लम्बी कविता) / राजेन्द्र कुमार" के अवतरणों में अंतर

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'''राजनीति जब कर्म नहीं, कर्मकांड हो तो क्यों न उसके 'तांत्रिक' भी हों! भूमंडलीकृत कर्मकांड के ये 'जन-तांत्रिक' हैं, जो अपने-अपने अनुष्ठानों को जनतंत्र के नाम पर चला कर, जनता को विकास के आईने दिखाना चाहते हैं। उन्हें पता नहीं, पता है कि नहीं कि यह विकास 'हां'-'नहीं' के द्वंद्व में फँस चुका है। आईना भी अब इतना जड़ नहीं रहा कि उसे यह प्रश्न न कुरेदे कि सदियों से चला आ रहा यह जनविश्वास कि 'आईना झूठ नहीं बोलता' क्या सिर्फ़ अंधविश्वास बन कर रह जायेगा? तो, क्या आईना-द्रोह होगा? होगा- शायद या निश्चित! तीन उप-शीर्षकों में यह लम्बी कविता, इसी 'शायद' और 'निश्चित' के द्वंद्व की कविता है।'''
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राजनीति जब कर्म नहीं, कर्मकांड हो तो क्यों न उसके 'तांत्रिक' भी हों! भूमंडलीकृत कर्मकांड के ये 'जन-तांत्रिक' हैं, जो अपने-अपने अनुष्ठानों को जनतंत्र के नाम पर चला कर, जनता को विकास के आईने दिखाना चाहते हैं। उन्हें पता नहीं, पता है कि नहीं कि यह विकास 'हां'-'नहीं' के द्वंद्व में फँस चुका है। आईना भी अब इतना जड़ नहीं रहा कि उसे यह प्रश्न न कुरेदे कि सदियों से चला आ रहा यह जनविश्वास कि 'आईना झूठ नहीं बोलता' क्या सिर्फ़ अंधविश्वास बन कर रह जायेगा? तो, क्या आईना-द्रोह होगा? होगा- शायद या निश्चित! तीन उप-शीर्षकों में यह लम्बी कविता, इसी 'शायद' और 'निश्चित' के द्वंद्व की कविता है।
  
  
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सबके अपने-अपने 'हाँ-हाँ'  
 
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न वह राजा था न जोगी
 
न वह राजा था न जोगी
 
क्योंकि उसके  
 
क्योंकि उसके  
दसो चक्र थे न दसो शंख!
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दसों चक्र थे न दसों शंख!
  
 
मगर ज्योतिषियों की निगाह  
 
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उस पर पड़ गयी
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उस पर पड़ गई
हालांकि वह लगातार चीखता रहा  
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हालाँकि वह लगातार चीख़ता रहा  
 
कि उसे किसी भी ज्योतिषी पर  
 
कि उसे किसी भी ज्योतिषी पर  
जरा भी भरोसा नहीं है!
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ज़रा भी भरोसा नहीं है!
  
 
ज्योतिषी ज्योतिषी था/ जानता था  
 
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देश के इतिहास में  
 
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विदेशी शासक किस किस के अक्सों को  
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विदेशी शासक किस-किस के अक्सों को  
 
आगे करके आया था  
 
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देश के भविष्य में ज्योतिषी  
 
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आईना आगे करके/आ गया
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आईना आगे करके / आ गया
  
अपनी लम्बाई से बित्ता भर बडे+/ आईने की  
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अपनी लम्बाई से बित्ता-भर बडे़ / आईने की  
 
आड़ में ज्योतिषी था
 
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ज्योतिषी की आड़ में भविष्य...
 
ज्योतिषी की आड़ में भविष्य...
 
भविष्य की आड़ में वर्तमान था...
 
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त्रिाकालदर्शी ज्योतिषी को इस क्रम पर  
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त्रिकालदर्शी ज्योतिषी को इस क्रम पर  
 
पूरा इत्मीनान था।  
 
पूरा इत्मीनान था।  
उसने ताड़ लिया था/कि जनतंत्रा में/आता हुआ  
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उसने ताड़ लिया था / कि जनतंत्र में / आता हुआ  
समाजवाद/भागते हुए  
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पीछे मुड़ मुड़ कर  
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पीछे मुड़-मुड़ कर  
क्यों देखता है आखिर
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क्यों देखता है आख़िर
 
हर बार !  
 
हर बार !  
  
 
आईने की आड़ में ज्योतिषी था।  
 
आईने की आड़ में ज्योतिषी था।  
  
उसकोᄉ जिसके न दसो चक्र थे न दसो शंखᄉ
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उसको- जिसके न दसों चक्र थे न दसों शंख-
ज्योतिषी नहीं दिखा, आईना दिखा....
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ज्योतिषी नहीं दिखा, आईना दिखा...
 
इतना बड़ा आईना !  
 
इतना बड़ा आईना !  
 
उसने पहली बार देखा था
 
उसने पहली बार देखा था
 
वह उसे देखता रह गया।
 
वह उसे देखता रह गया।
  
कुछ गड़ने लगा उसके/ क्या गड़ रहा है  
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कुछ गड़ने लगा उसके / क्या गड़ रहा है  
यह!ᄉउसने सीने पे टटोला।  
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यह! -उसने सीने पे टटोला।  
  
एकाएक समझ में आयाᄉ जो चीज
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एकाएक समझ में आया- जो चीज
 
गड़ रही है वो उसके सीने में नहीं, उसके घर के  
 
गड़ रही है वो उसके सीने में नहीं, उसके घर के  
किसी आले में होगीᄉकोर, उस टूटे हुए  
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किसी आले में होगी- कोर, उस टूटे हुए  
 
छोटे से  
 
छोटे से  
 
शीशे की  
 
शीशे की  
जो उसकी पत्नी के हाथों में होता है/ जब वह  
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जो उसकी पत्नी के हाथों में होता है / जब वह  
 
अपनी मांग में सेंदुर दे रही होती है
 
अपनी मांग में सेंदुर दे रही होती है
 
या माथे पे लगा रही होती है  
 
या माथे पे लगा रही होती है  
 
टिकुली!  
 
टिकुली!  
  
और यह/ इतना बड़ा आईना !
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और यह / इतना बड़ा आईना !
÷देखो तो, तुम कितने महान हो'ᄉपीछे से  
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'देखो तो, तुम कितने महान हो' -पीछे से  
किसी की आवाज/ उसने सुनी।
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किसी की आवाज़ / उसने सुनी।
मुड़ कर पीछे देखने की जरूरत नहीं थी,  
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मुड़ कर पीछे देखने की ज़रूरत नहीं थी,  
आवाज का चेहरा  
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आवाज़ का चेहरा  
आईने में/ उसके अपने चेहरे के बिल्कुल  
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आईने में / उसके अपने चेहरे के बिल्कुल  
नजदीक था।  
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सच तो यह है/ कि आईने के सामने होकर भी  
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उसकी निगाह अब तक  
 
उसकी निगाह अब तक  
अपने चेहरे और अपनी शक्ल पर गयी ही न थी
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अपने चेहरे और अपनी शक्ल पर गई ही न थी
 
अब तक वह केवल  
 
अब तक वह केवल  
 
घर के आने वाले शीशे और सामने वाले आईने की  
 
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तुलना करने में ही भूला था/और  
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तुलना करने में ही भूला था / और  
 
वह दंग था
 
वह दंग था
 
कि यह आईना कितना बड़ा है!
 
कि यह आईना कितना बड़ा है!
  
और अब/वह और अधिक दंग था
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और अब / वह और अधिक दंग था
कि वह महान कैसे है?
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कि वह महान कैसे है?
इतने बड़े आईने में/उसका अपना चेहरा  
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इतने बड़े आईने में / उसका अपना चेहरा  
आवाज के चेहरे के मुकाबले तो और भीᄉ
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आवाज़ के चेहरे के मुकाबले तो और भी-
 
छोटा  
 
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दिखता है।  
 
दिखता है।  
  
''तुम सचमुच महान हो!''ᄉ आवाज का चेहरा  
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"तुम सचमुच महान हो!" -आवाज़ का चेहरा  
 
आईने में खिल उठा।  
 
आईने में खिल उठा।  
  
''पर मेरा चेहरा तो इत्ता छोटा दिखता है!''ᄉवह
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"पर मेरा चेहरा तो इत्ता छोटा दिखता है!" -वह
 
आईने में अपना प्रतिबिम्ब देखते हुए  
 
आईने में अपना प्रतिबिम्ब देखते हुए  
 
बुदबुदाया।
 
बुदबुदाया।
  
आवाज का चेहरा  
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आवाज़ का चेहरा  
आईने में तड़क उठाᄉ''नावाकिफ हो तुम  
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आईने में तड़क उठा- "नावाकिफ़ हो तुम  
 
अपने देश की गौरवपूर्ण संस्कृति और दर्शन से;  
 
अपने देश की गौरवपूर्ण संस्कृति और दर्शन से;  
जो दिखता है वही सही नहीं होता!''
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जो दिखता है वही सही नहीं होता!"
  
''और जो सही होता है वो दिखता क्यों नहीं?''ᄉउसने
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"और जो सही होता है वो दिखता क्यों नहीं?" -उसने
आईने में आवाज के चेहरे से आंख मिलायी।
+
आईने में आवाज़ के चेहरे से आँख मिलाई।
जवाब मिलाᄉ ''इसलिए कि तुम देशप्रेम में  
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जवाब मिला- "इसलिए कि तुम देश-प्रेम में  
अंधे हो गये हो!  
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अंधे हो गए हो!  
तुम्हें देश दिखता है, अपना चेहरा नहीं दिखता।''
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तुम्हें देश दिखता है, अपना चेहरा नहीं दिखता।"
  
 
अब उसने अपने चेहरे पर गौर किया
 
अब उसने अपने चेहरे पर गौर किया
 
आईने में  
 
आईने में  
और आवाज के चेहरे से अपने चेहरे का  
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और आवाज़ के चेहरे से अपने चेहरे का  
 
मिलान भी।  
 
मिलान भी।  
आवाज का चेहरा  
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आवाज़ का चेहरा  
अपने चेहरे से बड़ा जरूर दिखा उसे  
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अपने चेहरे से बड़ा ज़रूर दिखा उसे  
लेकिन/आवाज के चेहरे वाली आंखें
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लेकिन / आवाज़ के चेहरे वाली आँखें
उसकी अपनी आंखों से बहुत छोटी थीं/और  
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उसकी अपनी आँखों से बहुत छोटी थीं / और  
 
जब वह देख रहा था उन्हें,
 
जब वह देख रहा था उन्हें,
 
वो और भी छोटी होती जा रही थीं।
 
वो और भी छोटी होती जा रही थीं।
 
देखते ही देखते  
 
देखते ही देखते  
आवाज का चेहरा गायब हो गया
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आवाज़ का चेहरा गायब हो गया
अब सिर्फ
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अब सिर्फ़
 
उसकी अपनी शक्ल  
 
उसकी अपनी शक्ल  
 
आईने में थी
 
आईने में थी
 
उसने  
 
उसने  
अनेक कोणों से आईने में खुद को देखा  
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फिर उसी देखने के सिलसिले में  
 
फिर उसी देखने के सिलसिले में  
 
आईने को  
 
आईने को  
 
उसने दोनों हाथ बढ़ा कर थाम लिया।
 
उसने दोनों हाथ बढ़ा कर थाम लिया।
अंगूठा छोड़/बाकी सब उंगलियां
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अंगूठा छोड़ / बाक़ी सब उंगलियाँ
आईने की आड़ में खडे+
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आईने की आड़ में खडे  
ज्योतिषी को दिखने लगीं/ज्योतिषी ने  
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ज्योतिषी को दिखने लगीं / ज्योतिषी ने  
 
मन ही मन  
 
मन ही मन  
उ+पर वाले का नाम लिया/और धीरे से
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ऊपर वाले का नाम लिया / और धीरे से
अपने हाथों को/पीछे हटाया।  
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अपने हाथों को / पीछे हटाया।  
  
आईने को अब/ज्योतिषी के लिए/ज्योतिषी के  
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आईने को अब / ज्योतिषी के लिए / ज्योतिषी के  
 
हाथों की  
 
हाथों की  
जरूरत नहीं थी।
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साफ साफ/अब दो पक्ष थे
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साफ़-साफ़/अब दो पक्ष थे
 
आईने के सामने था जन  
 
आईने के सामने था जन  
 
आईने को पकड़े  
 
आईने को पकड़े  

16:07, 27 दिसम्बर 2008 का अवतरण

राजनीति जब कर्म नहीं, कर्मकांड हो तो क्यों न उसके 'तांत्रिक' भी हों! भूमंडलीकृत कर्मकांड के ये 'जन-तांत्रिक' हैं, जो अपने-अपने अनुष्ठानों को जनतंत्र के नाम पर चला कर, जनता को विकास के आईने दिखाना चाहते हैं। उन्हें पता नहीं, पता है कि नहीं कि यह विकास 'हां'-'नहीं' के द्वंद्व में फँस चुका है। आईना भी अब इतना जड़ नहीं रहा कि उसे यह प्रश्न न कुरेदे कि सदियों से चला आ रहा यह जनविश्वास कि 'आईना झूठ नहीं बोलता' क्या सिर्फ़ अंधविश्वास बन कर रह जायेगा? तो, क्या आईना-द्रोह होगा? होगा- शायद या निश्चित! तीन उप-शीर्षकों में यह लम्बी कविता, इसी 'शायद' और 'निश्चित' के द्वंद्व की कविता है।


।। हाँ-नहीं।।

सबके अपने-अपने 'हाँ-हाँ'
सबके अपने 'नहीं-नहीं'
तना-तनी में कभी-कहीं
तो साँठ गाँठ में कभी-कहीं

"हाँ-हाँ, मुझे पता है
वह मुझे मूरख समझता होगा
या मासूम
भला कैसे जानेगा वह,
न मैं इतना मासूम हूँ, न अकेला

मैं उन बहुतों में एक हूँ
और एक में वह बहुत
जिनकी निगाह में आ चुका है
जन-तांत्रिक!"

"अरे, कहाँ का ज्योतिषी, कहाँ का नजूमी?

मुझे क्या मतलब
किसी का भविष्य बाँचने से
सिवा अपना
जिनका वर्तमान ही नहीं, उनका भविष्य क्या?
इसीलिए हमें वर्तमान पर काबिज रहना है!

खोए रहें जो खोए हैं भविष्य की चिन्ता में!

आईन हो या आईना
मजाल कि हमारे भविष्य से आँख मूंद ले!"

जन-तांत्रिक

ऊपर से नीचे तक
देखिए कहीं से भी-
किसी भी हिस्से से अपने शरीर के
वह
ख़ास नहीं मालूम होता था / आसपास
उसके
न धूम थी न कोई हुजूम होता था।

वह था निहायत मासूम आदमी
कम से कम / चेहरे से तो
था ही
और, उंगलियों से भी
न वह राजा था न जोगी
क्योंकि उसके
न दसों चक्र थे न दसों शंख!

मगर ज्योतिषियों की निगाह
उस पर पड़ गई
हालाँकि वह लगातार चीख़ता रहा
कि उसे किसी भी ज्योतिषी पर
ज़रा भी भरोसा नहीं है!

ज्योतिषी ज्योतिषी था/ जानता था
देश के इतिहास में
विदेशी शासक किस-किस के अक्सों को
आगे करके आया था
देश के भविष्य में ज्योतिषी
आईना आगे करके / आ गया

अपनी लम्बाई से बित्ता-भर बडे़ / आईने की
आड़ में ज्योतिषी था
ज्योतिषी की आड़ में भविष्य...
भविष्य की आड़ में वर्तमान था...
त्रिकालदर्शी ज्योतिषी को इस क्रम पर
पूरा इत्मीनान था।
उसने ताड़ लिया था / कि जनतंत्र में / आता हुआ
समाजवाद / भागते हुए
पीछे मुड़-मुड़ कर
क्यों देखता है आख़िर
हर बार !

आईने की आड़ में ज्योतिषी था।

उसको- जिसके न दसों चक्र थे न दसों शंख-
ज्योतिषी नहीं दिखा, आईना दिखा...
इतना बड़ा आईना !
उसने पहली बार देखा था
वह उसे देखता रह गया।

कुछ गड़ने लगा उसके / क्या गड़ रहा है
यह! -उसने सीने पे टटोला।

एकाएक समझ में आया- जो चीज
गड़ रही है वो उसके सीने में नहीं, उसके घर के
किसी आले में होगी- कोर, उस टूटे हुए
छोटे से
शीशे की
जो उसकी पत्नी के हाथों में होता है / जब वह
अपनी मांग में सेंदुर दे रही होती है
या माथे पे लगा रही होती है
टिकुली!

और यह / इतना बड़ा आईना !
'देखो तो, तुम कितने महान हो' -पीछे से
किसी की आवाज़ / उसने सुनी।
मुड़ कर पीछे देखने की ज़रूरत नहीं थी,
आवाज़ का चेहरा
आईने में / उसके अपने चेहरे के बिल्कुल
नज़दीक था।
सच तो यह है / कि आईने के सामने होकर भी
उसकी निगाह अब तक
अपने चेहरे और अपनी शक्ल पर गई ही न थी
अब तक वह केवल
घर के आने वाले शीशे और सामने वाले आईने की
तुलना करने में ही भूला था / और
वह दंग था
कि यह आईना कितना बड़ा है!

और अब / वह और अधिक दंग था
कि वह महान कैसे है?
इतने बड़े आईने में / उसका अपना चेहरा
आवाज़ के चेहरे के मुकाबले तो और भी-
छोटा
दिखता है।

"तुम सचमुच महान हो!" -आवाज़ का चेहरा
आईने में खिल उठा।

"पर मेरा चेहरा तो इत्ता छोटा दिखता है!" -वह
आईने में अपना प्रतिबिम्ब देखते हुए
बुदबुदाया।

आवाज़ का चेहरा
आईने में तड़क उठा- "नावाकिफ़ हो तुम
अपने देश की गौरवपूर्ण संस्कृति और दर्शन से;
जो दिखता है वही सही नहीं होता!"

"और जो सही होता है वो दिखता क्यों नहीं?" -उसने
आईने में आवाज़ के चेहरे से आँख मिलाई।
जवाब मिला- "इसलिए कि तुम देश-प्रेम में
अंधे हो गए हो!
तुम्हें देश दिखता है, अपना चेहरा नहीं दिखता।"

अब उसने अपने चेहरे पर गौर किया
आईने में
और आवाज़ के चेहरे से अपने चेहरे का
मिलान भी।
आवाज़ का चेहरा
अपने चेहरे से बड़ा ज़रूर दिखा उसे
लेकिन / आवाज़ के चेहरे वाली आँखें
उसकी अपनी आँखों से बहुत छोटी थीं / और
जब वह देख रहा था उन्हें,
वो और भी छोटी होती जा रही थीं।
देखते ही देखते
आवाज़ का चेहरा गायब हो गया
अब सिर्फ़
उसकी अपनी शक्ल
आईने में थी
उसने
अनेक कोणों से आईने में ख़ुद को देखा
फिर उसी देखने के सिलसिले में
आईने को
उसने दोनों हाथ बढ़ा कर थाम लिया।
अंगूठा छोड़ / बाक़ी सब उंगलियाँ
आईने की आड़ में खडे
ज्योतिषी को दिखने लगीं / ज्योतिषी ने
मन ही मन
ऊपर वाले का नाम लिया / और धीरे से
अपने हाथों को / पीछे हटाया।

आईने को अब / ज्योतिषी के लिए / ज्योतिषी के
हाथों की
ज़रूरत नहीं थी।


साफ़-साफ़/अब दो पक्ष थे
आईने के सामने था जन
आईने को पकड़े
आईने के पीछे था तंत्रा
कुछ भी न पकड़े हुए सब कुछ को
जकड़े।
जनᄉजिसके न दसो शंख थे न दसो चक्र
आईना देखता रहा
आईना उसे पूजने लायक लगा/क्योंकि
उसमें
उसके सिवा
दूसरा कोई न था।

ज्योतिषी
जन को देख तो नहीं पा रहा था
लेकिन उसकी हर, हरकत के बारे में
वह जो भी अंदाजे लगा रहा था,
प्रामाणिक थे।

और अंततः
ज्योतिषी के कानों तक पहुंची
वह बुदबुदाहट भी ,
जो जन के होठों पर/हूबहू
उसी रूप में थी जिस रूप में
अपने इष्टदेव की तसवीर के सामने
अगरबत्ती जलाते समय/उसके होठों पर
होती है।

ज्योतिषी इसी क्षण की प्रतीक्षा में था-
जन की आत्ममुग्धता के इसी क्षण की,
क्योंकि यही वह क्षण था
जो अपने गर्भ में
जन के लिए/कुछ भी जन देने से पहले,
अवधि के अनंत विस्तार को
पोस सकता था
और/जिसके लिए जन
साल दर साल सम्भाल कर रखने के लिए
किसी भी तरह के वादे को
अपनी उम्मीदों की टेंट में खोंस सकता था।
ज्योतिषी ने इसी क्षण
अपने उस साथी को इशारा किया/ जिसने
उस निहायत मासूम चेहरे वाले जन को
आईने में महान कह कर
आत्मबोध के काबिल बनाया था
और उसे प्रकट कर दिया था
खुद अंतर्द्धान रह कर।

ज्योतिषी का वह साथी
ज्योतिषी के करीब आया।
ज्योतिषी के पांवों के पास
वेदी वह पहले ही बना चुका था
अब वह
अपनी नीयत के बराबर
लकड़ियों के छोटे छोटे टुकड़े
उस वेदी पर सजाने लगा
एक के ऊपर एक-चौकोर।

और, जब इस तरह
आग की लपटों को घेरने का इंतजाम हो गया
तो उसने जोर से एक फूंक मारी।
लकड़ियों के बीचोंबीच
आग की
एक निहायत पतली
लौ ने
सर उठाया
जिसकी चमक/ज्योतिषी और उसके
साथी के चेहरों को समर्पित होती रही
और धुआं बढ़ता रहा जन की तरफ।

धुआं चूंकि सुगंधित था ।
इष्टदेव की तस्वीर के सामने जलती अगरबत्ती की तरह
इसलिए जन
उसे गद्गद् भाव से बरदाश्त करता रहा
वह
अपने हाथों से आईने को थामे
या आंख मले- चुनाव करना उसके लिए
मुश्किल था
और इस मुश्किल को अपारदर्शी आसानी
में बदलता हुआ
धुआं उसकी आंखों में भरता रहा।

और जब
आईने में
कुछ भी देख पाना
जन के लिए सम्भव न रह गया
तो उसने धीरे से
आईने को जमीन पर लिटा दिया
और आंख मलने लगा

देख कुछ भी नहीं पा रहा था वह
सिर्फ कुछ आवाजें उसने सुनीं
उन्हीं आवाजों के सहारे/धुएँ के साथ
वह हो लिया/ धुएँ की जड़ की तरफ
वह चलने लगा।

उसकी आँखें
सिकुड़ रही थीं,
धुआँ फैल रहा था
उसके कानों में आवाजें थीं
आंखों में धुआँ
पर हाथों में हवि नहीं थी
फिर भी वह कई बार 'स्वाहा' कह गया।
जो कुछ था/अब
ज्योतिषी और उसके साथी के
हाथों में था
और वे निश्चिन्त थे
कि पवित्रा धुएं में मिचमिचाती आंखें
जब वह खोलेगा/तो एक
गर्व करने लायक
सांस्कृतिक आदमी हो जाएगा
जिसे
उन दोनों के हाथ मजबूत करना
लाजिमी हो जाऐगा।

॥ परावर्तन ॥

ज्योतिषी था, उसका साथी था।
दोनों उम्मीद के गले में डाले बाहें-आश्वस्त
कि समय की मांग यही है जो वे कर रहे हैं
कि समय का सच यही है जो सामने है-
उनके अनुष्ठान से उठते
धुएं की तरह !

दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा
जब उन्हें विश्वस्त सूत्रों से पता चला
कि इस पवित्रा धुएं से-
तमाम टी.वी. चैनलों ने
घर घर को महका दिया है।

लोग- तमाम सारे लोग-
भूख और विपदा के मारे लोग
खूब खाये अघाये डकारे लोग
गड़ाये हैं अपनी आंखें
उन्हीं स्क्रीनों पर
जहां सब कुछ सीधे आता है
लेकिन कुछ भी सच और सतत नहीं आता,
सब कुछ चटखारेदार-रंगबिरंगा
और/बीच बीच में ब्रेक के साथ।

देर रात तक
जिसे देखते देखते-सबको
आखिर सो जाना है
एक निरी उथली, स्वप्नविहीन नींद;
सोचना कतई नहीं कि क्या हो जाना है !


आईना
जमीन पर चित्त धरा था।
अब किसी की नजर
उस पर न थी।
पर
आग की जिन लपटों को
घेरने का इंतजाम हो गया था
वे लपटें
लकड़ियों में से, बीच बीच में
थोड़ा भी ऊपर उठतीं
आईने से उनकी आंखें
लड़ जातीं,
ज्योतिषी और उसके साथी की आंखों में-
इससे पहले कि उनकी पलकें
आंखों की रक्षा में झंपें-
चुभ जाती तीर सी नुकीली
भभक !

और जब जब ऐसा होता
वे दोनों
अपनी आंखों पर
अपने अपने हाथ के पंजों को ढाल की तरह कर लेते।

पर तभी, उन्हें ध्यान आया
ज्योतिष को विज्ञान की तरह प्रचारित करते करते
असल विज्ञान का तथ्य उन्हें
याद ही न रहा, जिसे
परावर्तन के नियम के रूप में
उन्होंने कभी पढ़ा था।

ज्योतिषी ने कंपकंपी महसूस की
आईना अपने परावर्तन धर्म पर अड़ा था

÷स्वाहा स्वाहा' बंद हो चुका था
और वह जन-
जिसके न दसो शंख थे न दसो चक्र
आईने को अपने पक्ष में देख रहा था
अपने अक्स में
जो उसके अपने असली कद से
जरा भी न छोटा था, न बड़ा था।

आईने के नीचे जमीन थी
और बीच में जरा भी जगह न थी
कि जन-तांत्रिक उसकी आड़ ले सके।