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ऊहापोह / जयप्रकाश मानस

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उफनती उफ़नती नदी की शक्ल में
मसकता है लावा
जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से
विवेक गम गुम हो जाता है
जैसे अनाड़ी के हाथ से
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