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"चाह / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर

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03:49, 12 जनवरी 2009 के समय का अवतरण

मुझे ऐसे मैदान दिखाओ
मेरे मालिक
जहाँ हाथी
हवाओं की तरह चलें
और हवाएँ झूमें
हाथियों की तरह

अकेली चलें
और चिंघाड़ें भी

उनके न हों कान
पर वे ख़ुद सुनें
कानों की तरह
अपनी सूंड से लिखें वे
रेत पर चित्र
अन्दर के विस्तार में
जहाँ बिखरे हों
शंख, सीपियाँ, घोंघे
कछुओं के पिंजर
उतर गया हो चेतना का समुद्र
और मैं खोजूँ
अनन्त रेत में
एक ख़ूबसूरत नख़लिस्तान
जिन्हें शब्द बदलें
मरीचिकाओं में
और वे मरीचिकाएँ
मायावी तितलियों का रूप धर
उतरें मेरे पृष्ठ पर
एकाएक जब दरवाज़े की तरह
खुले मेरा मस्तक
मैं देखूँ अन्दर
खुलते हुए लगातार
एक के बाद एक
अनेक दृश्य

आवाज़ न हो उनकी
वे हों धूमायमान
सपनों की तरह
और सपनें हो भूदृश्य
वे उड़ें एक साथ
पक्षियों की तरह
और खुलने लगें आसमान

हाथी तब
बदल जाएँ हवाओं में
और हवाएँ झूमें
हाथियों की तरह।