"शहर एक स्मृति / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
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वह शहर मेरे लिये | वह शहर मेरे लिये | ||
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है एक धुन्धली स्मृति | है एक धुन्धली स्मृति | ||
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वसन्त में जब खिलते हैं | वसन्त में जब खिलते हैं | ||
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हरसिंगार | हरसिंगार | ||
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रसोई से उठती है | रसोई से उठती है | ||
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पुराने पकवान की महक | पुराने पकवान की महक | ||
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आसमान जब उतारता है | आसमान जब उतारता है | ||
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अपनी बदराई केंचुल | अपनी बदराई केंचुल | ||
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वह एकाएक खोल देता है | वह एकाएक खोल देता है | ||
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अपनी कुण्डली | अपनी कुण्डली | ||
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मुझे याद आती हैं | मुझे याद आती हैं | ||
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उसकी आड़ी तिरछी गलियाँ | उसकी आड़ी तिरछी गलियाँ | ||
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सवेरों के वे मुँह अँधेरे | सवेरों के वे मुँह अँधेरे | ||
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दूकानों से आती असली घी की महक | दूकानों से आती असली घी की महक | ||
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मन्दिरों से पूजा-थाल लिए लौटतीं | मन्दिरों से पूजा-थाल लिए लौटतीं | ||
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धर्मभीरु वृद्घाएँ | धर्मभीरु वृद्घाएँ | ||
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रबड़ी का दोना लिये घर लौटते | रबड़ी का दोना लिये घर लौटते | ||
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रिटायर्ड बुजुर्ग | रिटायर्ड बुजुर्ग | ||
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बाँह से लटकी होतीं उनके | बाँह से लटकी होतीं उनके | ||
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असली बेत की लाठियाँ | असली बेत की लाठियाँ | ||
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बच्चे सो रहे होते जच्चाखानों में | बच्चे सो रहे होते जच्चाखानों में | ||
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अपनी अम्माओं की | अपनी अम्माओं की | ||
− | + | दूधीली छातियों से लिपटे | |
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अपने अपने सपनों में मशगूल | अपने अपने सपनों में मशगूल | ||
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कुछ कुछ उनींदे | कुछ कुछ उनींदे | ||
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आह, जपी हुई सुमिरनियों की तरह | आह, जपी हुई सुमिरनियों की तरह | ||
− | + | एक-एक कर बीत गये वे दिन! | |
− | एक- एक कर बीत गये वे दिन! | + | |
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तराशे हुए आकाश | तराशे हुए आकाश | ||
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और उनका वह पुरातन शिल्प | और उनका वह पुरातन शिल्प | ||
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पोंछ दिया है समय ने | पोंछ दिया है समय ने | ||
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कस्बाती महक उड़ गयी है | कस्बाती महक उड़ गयी है | ||
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उन ठाठदार मकानों से | उन ठाठदार मकानों से | ||
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ध्वस्त कर दिये गये हैं जो कब के | ध्वस्त कर दिये गये हैं जो कब के | ||
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अब खड़ी हैं वहाँ | अब खड़ी हैं वहाँ | ||
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अपने उदग्र घमण्ड में | अपने उदग्र घमण्ड में | ||
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अनेक मंज़िला कंकरीटी इमारतें | अनेक मंज़िला कंकरीटी इमारतें | ||
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लिये पोर्टिकों में | लिये पोर्टिकों में | ||
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विदेशी गाडिय़ों की तामझाम | विदेशी गाडिय़ों की तामझाम | ||
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और बीच में तराशा हुआ | और बीच में तराशा हुआ | ||
− | + | कृत्रिम-सा | |
− | कृत्रिम सा | + | |
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भावहीन आकाश | भावहीन आकाश | ||
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मैं जहाँ जन्मा था | मैं जहाँ जन्मा था | ||
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मुझे आयी है आज फिर | मुझे आयी है आज फिर | ||
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उस शहर की याद | उस शहर की याद | ||
− | + | अन्धेरों में दूर जुगनू-रोशनियों-सा जगमगाता | |
− | अन्धेरों में दूर जुगनू रोशनियों सा जगमगाता | + | |
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कोठों से दिखते | कोठों से दिखते | ||
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टिमटिमाते आकाश की तरह | टिमटिमाते आकाश की तरह | ||
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उदास और उनींदा। | उदास और उनींदा। | ||
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18:24, 12 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
वह शहर मेरे लिये
है एक धुन्धली स्मृति
वसन्त में जब खिलते हैं
हरसिंगार
रसोई से उठती है
पुराने पकवान की महक
आसमान जब उतारता है
अपनी बदराई केंचुल
वह एकाएक खोल देता है
अपनी कुण्डली
मुझे याद आती हैं
उसकी आड़ी तिरछी गलियाँ
सवेरों के वे मुँह अँधेरे
दूकानों से आती असली घी की महक
मन्दिरों से पूजा-थाल लिए लौटतीं
धर्मभीरु वृद्घाएँ
रबड़ी का दोना लिये घर लौटते
रिटायर्ड बुजुर्ग
बाँह से लटकी होतीं उनके
असली बेत की लाठियाँ
बच्चे सो रहे होते जच्चाखानों में
अपनी अम्माओं की
दूधीली छातियों से लिपटे
अपने अपने सपनों में मशगूल
कुछ कुछ उनींदे
आह, जपी हुई सुमिरनियों की तरह
एक-एक कर बीत गये वे दिन!
तराशे हुए आकाश
और उनका वह पुरातन शिल्प
पोंछ दिया है समय ने
कस्बाती महक उड़ गयी है
उन ठाठदार मकानों से
ध्वस्त कर दिये गये हैं जो कब के
अब खड़ी हैं वहाँ
अपने उदग्र घमण्ड में
अनेक मंज़िला कंकरीटी इमारतें
लिये पोर्टिकों में
विदेशी गाडिय़ों की तामझाम
और बीच में तराशा हुआ
कृत्रिम-सा
भावहीन आकाश
मैं जहाँ जन्मा था
मुझे आयी है आज फिर
उस शहर की याद
अन्धेरों में दूर जुगनू-रोशनियों-सा जगमगाता
कोठों से दिखते
टिमटिमाते आकाश की तरह
उदास और उनींदा।