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लोहार चला रहा
 
लोहार चला रहा
  

20:39, 12 जनवरी 2009 का अवतरण

लोहार चला रहा

लगातार अपनी धोंकनी

कुम्भकार दे रहा

मिट्टी को आकर

बुनकर बुन रहा

ब्रह्मासूत

जाने त्रयेक परमेश्वरों ने

क्यों रची होगी

यह रूखी, अड़िय़ल

और नापायेदार

अदभुत माया


इसे जानते हैं तो जानते फकत

साधू आखरों के सबदकार


कि पेड़ लगातार झड़ रहे हैं

फिर भी उनसे आ रही है

खंजड़ी और मंजीरों की धुन

बेमौसम क्यों अँकुराते हैं

जंगली अंजीरों केपेड़

बना रही हैं क्यों शहद और मोम

गुनगुन भजन गातीं मधुमक्खियाँ

बज रहा सबके अन्दर क्यों

एक नाद

फिर भी आदमी है

लोहार का

बजता हुआ धोकी यंत्र

कुम्हार की मृद् घड़त

और जुलाहे की चादर

वह है अनादि अनन्त का

एक नायाब तोहफा

जिसे चला रहे

लोहार

कुम्हार

और बुनकर।