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23:47, 31 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
इस धूप में
पगला गई है मेरी माँ
झर गए हैं उसके पत्ते
उसकी स्मृतियाँ
रहती है दिन भर निर्वस्त्र
हो गई है मौन...
वेदनाओं से मुक्त
किसी पोखर-सी उदासीन
लू चल रही है
और डाक्टर लिखते हैं एक ही उपचार
चिनार की हवा !
क्या करूँ, माँ !
मेरे बस में नहीं है
यह दवा