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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध }}[[Category:लम्बी कविता]]
<poem>* [[कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!तरक़्क़ी के गोल-गोलघुमावदार चक्करदारऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने कीचढ़ते ही जाने कीउन्नति के बारे मेंतुम्हारी ही ज़हरीलीउपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!' कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों औरढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर मेंबियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।अजीब-सी होती है, चारों ओरवीरान-वीरान महक सुनसानों कीपूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों मेंमानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी कीसोंधी गंधकहीं नहीं, कहीं नहींपूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं;केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों मेंनिर्जन प्रसारों परसिर्फ़ एक आँख से'सफलता' की आँख सेदुनिया को निहारती फैली हैपूनों की चांदनी।सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों मेंबैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हितजंगल के सियारों औरघनी-घनी छायाओं में छिपे हुएभूतों और प्रेतों तथापिचाशों और बेतालों के लिए –मनुष्य के लिए नहीं – फैली यहसफलता की, भद्रता की,कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी। मुझको डर लगता है,मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मेघुग्घू या सियार याभूत नहीं कहीं बन जाऊँ।उनको डर लगता हैआशंका होती हैकि हम भी जब हुए भूतघुग्घू या सियार बनेतो अभी तक यही व्यक्तिज़िंदा क्यों?उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिरजीवित क्यों रहती है?मरकर जब भूत बनेउसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाएतो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों परसफलता के चंद्र की छाया में अधीर हो।इसीलिए,इसीलिए,उनका और मेरा यह विरोधचिरंतन है, नित्य है, सनातन है।उनकी उस तथाकथितजीवन-सफलता केखपरैलों-छेदों सेखिड़की की दरारों सेआती जब किरणें हैंतो सज्जन वे, वे लोगअचंभित होकर, उन दरारों को, छेदों कोबंद कर देते हैं;इसीलिए कि वे किरणेंउनके लेखे ही आजकम्यूनिज़्म है...गुंडागर्दी है...विरोध है,जिसमें छिपी है कहींमेरी बदमाशी भी। मैं पुकारकर कहता हूँ –'सुनो, सुननेवालों।पशुओं के राज्य में * [[कहने दो उन्हें जो बियाबान जंगल हैउसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकायबरगद एक विकराल।उसके विद्रूप शतशाखा-व्यूहों निहितपत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर...वृक्ष के तने से चिपटबैठा है, खड़ा है कोईपिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,वह तो रखवाला हैघुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।और उस जंगल में, बरगद के महाभीमभयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चांदनीसफलता की, भद्रता की,श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति कीखिलखिलाती चांदनी।अगर कहीं सचमुच तुमपहुँच ही वहाँ गएतो घुग्घू बन जाओगे।आदमी कभी भी फिरकहीं भी न मिलेगा तुम्हें।पशुओं के राज्य मेंजो पूनों की चांदनी हैनहीं वह तुम्हारे लिएनहीं वह हमारे लिए। तुम्हारे पास, हमारे पास,सिर्फ़ एक चीज़ है –ईमान का डंडा है,बुद्धि का बल्लम है,अभय की गेती हैहृदय की तगारी है – तसला हैनए-नए बनाने के लिए भवनआत्मा के,मनुष्य के,हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोगजीवन की गीली औरमहकती हुई मिट्टी को।जीवन-मैदानों मेंलक्ष्य के शिखरों परनए किले बनाने मेंव्यस्त हैं हमीं लोगहमारा समाज यह जुटा ही रहता है।पहाड़ी चट्टानों कोचढ़ान पर चढ़ाते हुएहज़ारों भुजाओं सेढकेलते हुए कि जबपूरा शारीरिक ज़ोरफुफ्फुस की पूरी साँसछाती का पूरा दमलगाने के लक्षण-रूपचेहरे हमारे जबबिगड़ से जाते कहते हैं / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]सूरज देख लेता हैदिशाओं के कानों में कहता है –दुर्गों के शिखर सेहमारे कंधे पर चढ़खड़े होने वाले येदूरबीन लगा कर नहीं देखेंगे –कि मंगल में क्या-क्या है!!चंद्रलोक-छाया को मापकरवहाँ के पहाड़ों की उँचाई नहीं नापेंगे,वरन् स्वयं ही वेविचरण करेंगे इन नए-नए लोकों में,देश-काल-प्रकृति-सृष्टि-जेता ये।इसलिए अगर ये लोगसड़क-छाप जीवन की धूल-धूपमामूली रूप-रंगलिए हुए होने सेतथाकथित 'सफलता' केखच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदिनिरर्थक व महत्वहीनक़रार दिए जाते होंतो * [[कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं। सामाजिक महत्व कीगिलौरियाँ खाते हुए,असत्य की कुर्सी परआराम से बैठे हुए,मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट,बंदरों व रीछों के सामनेनई-नई अदाओं से नाच करझुठाई की तालियाँ देने से, लेने से,सफलता के ताले ये खुलते हैं,/ भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]बशर्ते कि इच्छा होसफलता की,महत्वाकांक्षा होअपने भी बरामदेमें थोड़ा सा फर्नीचर,विलायती चमकदाररखने की इच्छा होतो थोड़ी सी सचाई मेंबहुत-सी झुठाई घोलसांस्कृतिक अदा से, अंदाज़ सेअगर बात कर सको – भले ही दिमाग़ मेंख़्यालों के मरे हुए चूहे हीक्यों न हों प्लेग के,लेकिन, अगर कर सकोऐसी जमी हुई ज़बान-दराजी औरसचाई का अंग-भंगकरते हुए झूठ काबारीक सूत कात सकोतो गतिरोध और कंठरोधमार्गरोध कभी भी न होगा फिरकटवा चुके हैं हम पूंछ-सिरतो तुम ही योंहमसे दूर बाहर क्यों जाते हो?जवाब यह मेरा है,जाकर * [[कहने दो उन्हें कह दो कि सफलता के जंग-खाएतालों और कुंजियोंकी दुकान है कबाड़ी की।इतनी कहाँ फुरसत हमें –वक़्त नहीं मिलता हैकि दुकान पर जा सकें।अहंकार समझो या सुपीरियारिटी कांपलेक्सअथवा कुछ ऐसा हीचाहो तो मान लो,लेकिन सच है जो यहजीवन की तथाकथितसफलता को पाने कीहमको फुरसत नहीं,खाली नहीं कहते हैं हम लोग!!बहुत बिज़ी हैं हम।जाकर उन्हें कह दे कोईपहुँचा दे यह जवाब;और अगर फिर भी वेकरते हों हुज्जत तो कह दो कि हमारी साँसजिसमें है आजकलके रब्त-ज़ब्त तौर-तरीकों की तरफ़ज़हरीली कड़ुवाहट,ज़रा सी तुम पी लो तोदवा का एक डोज़ समझ,तुम्हारे दिमाग़ केरोगाणु मर जाएंगेव शरीर में, मस्तिष्क में,ज़बर्दस्त संवेदन-उत्तेजनइतना कुछ हो लेगाकि अकुलाते हुए ही, तुमअंधेरे के ख़ीमे को त्यागकरउजाले के सुनहले मैदानों मेंभागते आओगे;जाकर उन्हें कह दे कोई,पहुँचा दे यह जवाब!!</poem>भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध]]
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