"अशाँत कस्बा / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर
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अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर | अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर | ||
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी | आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी | ||
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22:15, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
एक
आएगी सीढ़ियों से धूप
बंद द्वार देख के लौट जाएगी
खिड़की में हवा हिलेगी
सिहरेगा नहीं रोम कोई
पर्दों को छेड़कर उड़ जाएगी
पहाड़ी मोड़ों को चढ़कर रुकेंगी बसें
टकटकी लगा के देखेगी नहीं कोई आँख
हर जाड़े में शिखर लेटेंगे
बर्फ की चादरें ओढ़कर
पेड़ गाढ़े हरे पत्तों को लपेटकर
बैठे रहेंगे घास पर गुमसुम
चट्टानों पर पानी तानकर
ढोल-मँजीरे बजाती
गुजर जाएगी बरसाती नदी
ढलान पर टिमटिमाता
पहाड़ी कस्बा सोएगा रोज रात
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी
सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चाँद
चाँदनी टीवी एंटीनों पर बिसूरती रहेगी
मकानों के बीच नए मकानों को जगह देकर
सिहरती हुई सिमट जाएगी हवा चुपचाप
किसी को खबर भी नहीं होगी
बंद देख के द्वार
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से
दो
ज़िले के दफ्तर नौकरियाँ बजाते रहेंगे
कागजों पर आंकड़ों में खुशहाल होगा जिला
आस-पास के गाँवों से आकर
कुछ लोग कचहरियों में बैठे रहेंगे दिनों दिन
कुछ बजाजों से कपड़ा खरीदेंगे
लौटते हुए गोभी का फूल ले जाएँगे
कुछ सुबह सुबह आ पँहुचेंगे
धीरे-धीरे नए बन रहे मकानों में काम शुरू हो जाएगा
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी
कुछ देर पीछे हाथ बाँध के टहलेगा
सेवानिवृत्त नौकरशाह की तरह
फिर घरों में बंद हो जाएगा कस्बा
किसी को पता भी नहीं चलेगा
मिमियाएंगी इच्छाएं कुछ देर
बंद संदूकों से निकल के
रजाइयों की पुरानी गँध के अँधेरे में दब जाएंगी
बँजारिन धूप अकेली
स्कूल के आहातों खेतों और गोशालाओं में झांकेगी
मकानों की घुटन से चीड़ के जले जँगलों से भागी
लावारिस लुटी हुई हवा
सड़क किनारे खड़ी रहेगी
न कोई पूछेगा न बतलाएगा
धरती के गोले पर कहां है कस्बा
बस्ता उठाके कुछ साल
लड़के स्कूल में धूल उड़ाते रहेंगे
इन्हीं सालों में तय हो जाएंगी
अगले चालीस पचास सालों की तकदीरें
कुछ को सरकार बागवानी सिखाएगी
कुछ खस्सी हो जाएंगे सरकारी सेवा में
कुछ फौज से बूढ़े होकर लौटेंगे
कुछ टुच्चे बनिए बनेंगे
कुछ कई कुछ बनते कुछ नहीं रहेंगे
कुछ बसों में बैठकर मोड़ों से ओझल हो जाएंगे
न भूलेंगे न लौट पाएंगे
धूल उड़ाते हुए तकरीबन हर कोई सीखेगा
दाल भात खाके डकार लेना
सोना और मगन रहना
कोई न पहचानेगा न पाएगा
पर्वतों का सीना बरसाती नदी का उद्दाम वेग
सूरज का ताप हवा की तकलीफ
द्वारों पर ताले जड़े रहेंगे
दिल दिमाग ठस्स पड़े रहेंगे
अपनी ही खुमारी में अपना ही प्यार
कस्बे को चाट जाएगा
खबरों में भी नहीं आएगा कस्बा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला
(1988)