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"इतने ऊँचे उठो / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर

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इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥ 
  
चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना<br>
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लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना<br>
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जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे<br>
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तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे<br>
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गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
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धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥<br><br>
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इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है। 
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चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना  
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अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना  
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सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे  
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सब हैं प्रतिपल साथ हमारे  
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दो कुरूप को रूप सलोना  
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इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥
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11:07, 7 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।

देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥